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घसियारिनें

घसियारिनें छोड़ आती हैं
सारे दुःख, जंगलों में
उदास हो उठता है एक-एक पेड़

वे लौटती हैं
हँसती-बतियाती हुई
चूल्हे की चिंता को
हँसी में उड़ाती हुई
उनकी हँसी में डूब जाता है
ढलते सूरज का मन
उनके गीतों से
जाग उठती हैं पगडंडियाँ

घसियारिनें हँसती हैं
तो हँस उठती हैं कच्ची दीवारें
हँसता है पसीना सँवलाई देह पर
हँसती है गृहस्थी
हँसने लगती हैं रोटी की खुशबुएँ
किलकारियाँ भरने लगता है आँगन

हर सुबह
इंतजार करता है जंगल
गूँजने लगती हैं उसके कानों में
बिवाई फटे पैरों की आहटें

घसियारिनें रोज जाती हैं जंगलों में
और छोड़ आती हैं वहाँ
अपने भीतर का जंगल।

१६ फरवरी २०१५

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