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गुच्छे भर अमलतास-मरुधरा
                -आतप
                -विरक्ति

  पतंग आकाश में

पतंग जैसा
उठ गया आकाश में
ढील दी ख़ूब
खुश हुआ मन

पतंगे और भी थीं
लहराती उतराती गगन में
झटके से खींचते-छोड़ते डोर
शातिर खिलाड़ी वे
थे आतुर लड़ाने को पेंच
लपेटना वापस
था जोखिम भरा

अनमना हो गया मन
आख़िर न अभ्यस्त था
दाँव-पेंच का
मंझा भी सूता नहीं था
मोम और काँच से

काट ही दे पतंग कोई
हो गया व्यग्र
चौकस दृष्टि, आशंकित
समेट ली डोर

लौट आई पतंग हाथों में
न उड़ सकी
उन्मुक्त वह
आकाश में

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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