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अनुभूति में डॉ. दिनेश चमोला शैलेश
की रचनाएँ—

दोहों में-
माँ
कविताओं में-
अनकहा दर्द
एक पहेली है जीवन
खंडहर हुआ अतीत
गंगा के किनारे
जालिम व्यथा
दूधिया रात
धनिया की चिंता
सात समुन्दर पार
पंखुडी
यादें मेरे गाँव की
ये रास्ते
रहस्य

संकलन में-
पिता की तस्वीर- दिव्य आलोक थे पिता

 

माँ

पल-पल माँ रचती रही, गुप-चुप जो इतिहास।
युग-युग तक जीवित रहे, वह श्रद्धा, विश्वास।।

माँ के इस अवदान को, कौन सका है देख?
कर्मों के आकाश में, जो आस्था की रेख।।

छोटा सा अभिनय मिला, छोटा सा ही मंच।
किंतु कर्म से सर्वदा, चकित रखा सरपंच।।

नित्य कमल-सा ही रहा, माँ जीवन प्रतिमान।
खुशी-खुशी स्वीकार्य था, यश, अपयश व ज्ञान।।

दुख में माँ लिखती रही, सुख का नित इतिहास।
परहित ही चलती रही, दान, पुण्य की श्वास।।

कभी न भूली कष्ट में, क्षमा, पुण्य व दान।
कर्मयोग लाती रही, थी सबके संज्ञान।।

बन पंछी परदेश की, आई माँ इस देश।
खेल खिलाकर उड़ चली, वापस अपने देश।।

नीड़ बनाया जुगत से, शक्ति लगाई प्राण।
सब कुछ ही अर्पित किया, किंतु न पाया त्राण।।

तप-तप कर जीवन हुआ, अंत समय कंकाल।
कलियुग में आदर्श का, सखे यही है हाल।।

करना था जो कर गई, छोटे से ही काल।
कोई भी कैसे करे, वैसे सौ-सौ साल।।

मानव जीवन ना मिले, जग में बारंबार।
तब ही माँ तपती रही, नित जग के उद्धार।।

तड़क दामिनी सा मिले, यह जीवन उपहार।
करो यहाँ विध्वंस या, उजला दो संसार।।

कहती माँ का नाटक सदा, यह जीवन का खेल।
जग की बाधाएँ हरो, दाता से कर मेल।।

अभिनय के ही हित मिला, जीवन का सामान।
उत्सव जब पूरा हुआ, फूटे सब मेहमान।।

जीवन की गाडी मिली, लंबा है गंतव्य।
फिर पथिकों से स्नेह क्यों, करें बिना मंतव्य।।

बचपन भर देती रही, माँ थी मितनी सीख।
कहती, काम करो सदा, हटकर के सब लीक।।

हरो भार, यदि हर सको, बनो न लेकिन भार।
जग को देता, जो उसे, करे याद संसार।।

जीवन पा अनमोल जो, कर न सके उपकार।
ऐसी पशुसम देह का, जीवन है धिक्कार।।

जन्म-जन्म के कष्ट सह, पाता मानव देह।
ज्ञानी वह जो जान ले, कहाँ सत्य का गेह?

सबके बन अगुवा रहे, बनो न लेकिन भीड़।
जंगल में ऐसे रहे, ऊँचा, जैसे चीड़।।

याद रखो ऊँचा रहे, नित ही माँ का दूध।
औ' कलंक से श्रेष्ठ है, मृत्यु, नदी में कूद।।

जीवन जीना है वही, करें जिसे सब याद।
बिन इसके जीवन सखे, व्यर्थ हुआ बरबाद।।

फूलो तो ऐसे फुलो, डगमग लाल बुरांस।
जीतो जी ना द्वेष हो, मर, निकले ना श्वास।।

हर संभव कर कर्म जो, हो ले फेल व पास।
भाग्य परे इससे सखे, क्यों हो व्यर्थ उदास।।

रही समर्पित कर्म को, बिना किए संवाद।
रह-रह वह तप साधना, माँ की आती याद।।

घर में चाहे रीतते, रहे अन्न भंड़ार।
लेकिन माँ के दान का, हरा रहा संसार।।

श्रद्धा से उस ईश की, नत रहता नित माथ।
हार मिले या जीत ही, सिर पर उसका हाथ।।

माँ ऋषियों में व्यास है, भागवत कथा प्रसाद।
जिसकी छाया से मिटें, पल में सब अवसाद।।

दृष्टि जगत की सार माँ, सब भावों की भाव।
भावों का संसाद दे, सहती सदा अभाव।।

माँ ने इस संसाद की, कंूजी दी सब साथ।
पाओ यश, अपयश सखे, यह सब अपने हाथ।।

माँ ने तो सत्कर्म का, दिया तुम्हें ताबीज।
पाओ वैसे फल सखे, जैसे बोओ बीज।।

जन्म-जन्म था भटका, लख चौरासी बार।
माँ ने खोला जन्म दे, वही पुण्य का द्वार।।

अब तुम स्वामी पंथ के, डुबो, करो उद्धार।
जन्म-जन्म की बेडियाँ काट लगो तुम पार।।

अब तुम माझी देह के, समझो, इसे जहाज।
चाहो सब स्वाहा करो, या पूरो सब काज।।

लड़ जीवन संग्राम माँ, हुई ब्रह्म में लीन।
उसी सत्य की खोज में, रहो सदा तल्लीन।।

दुर्गम पथ है साधना, माँ थी उसका मंत्र।
नित्य कर्म तलवार से, हरती सब षड्यंत्र।।

माँ आस्था की नाव थी, माझी जिसका कर्म।
जीव जगत को सुख मिले, था बस जिसका धर्म।।

खुशियों की दीपावली, रहती माँ के साथ।
रहते नित आभार में, सदा इष्ट को हाथ।।

ना व्याख्या, ना शेखियाँ, और न आत्म प्रचार।
श्रद्धा से सबसे करे, माँ अपनों से प्यार।।

माँ आस्था के भवन की, अद्भुत है बुनियाद।
जिस पर है जग का टिका, खुशियों का प्रसाद।।

१ दिसंबर २००५

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