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अनुभूति में डॉ. दिनेश चमोला शैलेश
की रचनाएँ—

दोहों में-
माँ
कविताओं में-
अनकहा दर्द
एक पहेली है जीवन
खंडहर हुआ अतीत
गंगा के किनारे
जालिम व्यथा
दूधिया रात
धनिया की चिंता
सात समुन्दर पार
पंखुडी
यादें मेरे गाँव की
ये रास्ते
रहस्य

संकलन में-
पिता की तस्वीर- दिव्य आलोक थे पिता

 

सात समुन्दर पार!

दिदा!
तुम रहते हो चाहे
गढवाल की रंगीली वादियों से
हजारों-हजार मील दूर;
सात समुन्दर पार
किन्तु अब भी बजते हैं
तुम्हारी खण्डहर हुई हवेली के ईद-गिर्द
औजियों के ढोल
इस प्रत्याशा के साथ
कि शायद पुरखों का स्नेह
तुम्हें न्यौता दे ड़ाले
पंचतारा संस्कृति से फिर
खण्डहर के चिथडों में दबे
अपने पुरखों का
काटा बरसोटा करने के लिए
आज भी दबे हैं
इन खण्डहरों में
पुरखों की गुदडियों की वे लीरें
जहाँ बुने थे स्वप्न उन्होंने
तुम्हारे बडे होने के लिए

दिदा!
तुम्हें तो याद नहीं आती है
लेकिन खण्डहर के मलबे के नीचे से
रह-रह कर किलकते हैं
पुरखों के घाव
बिलखती हैं चीत्कारें
शायद इसीलिए
इसकी कंटीली झाडियों में
घर बनाकर
परित्यक्ता का जीवन जीता है एक पक्षी
जो तीज-त्योहारों पर रोता है;
बिख्वौत-बग्वाली पर रोता है;
तब-तब रोता है
जब-जब किसी की देहरी पर
परदेश गया कोई
गुदडी का लाल आ लौटता है;
तब और भी तेजी से रोता है;
जब कोई माँ का लाल तुम्हारी ही तरह
जाने लगता है परदेश
अपना गाँव छोड़कर
कभी फिर गाँव न लौटने की चाह लिये

दिदा!
तुम नहीं आते
लेकिन फुल-फुल माई के मौके पर
पुरखों को याद कर
मलिन मन से
खण्डहर की संभावित देहलियों पर
निराशा के दो फूल
अवश्य डालते हैं बच्चे ढोली
बंद आँखों से चैत के महीने
तुम्हारी सुख-समृद्धि के लिए
अपने दिवंगत ग्वस्यारों को याद कर-कर
बहाता है आँसू
बजाता है भरे मन से ढोल
करता है कामना
तुम्हारे और अच्छे दिनों की
लेकिन नहीं छोड़ पाता प्रत्याशा
किसी न किसी दिन
तुम्हारे अनायास आ लौटने की

दिदा!
तुम्हें तो याद नहीं आता गाँव
लेकिन गाँव का हर गदेरा
हर बाटा, हर रौला, हर धारा
बरबस याद करता है तुम्हें
वह गौंड़ा तुम्हें कैसे भूल सकता है
जिसकी पीठ पर बैठकर
अबोध बचपन में तुम
ग के ल्यचडे के साथ

चुप-चुप बुना करते थे भविष्य के स्वप्न।
तीज-त्योहारों पर
मेले-ठेलों में
जब-जब मिलती है धियाणियाँ
खण्डहर हुए घर से
भरे मन, तब-तब
पूछती हैं कुशलक्षेम तुम्हारी
लौट जाती है बैरंग
बिना समौण-कलेवे के
मन को अम्वख्या कर
तुम्हारे बचपन के दिनों की
चंचल स्मृतियाँ बटोरे

दिदा!
नाचते हैं आज भी वे ग्राम देवता
जिनके मंडले
तुमने वंचारे दिनों में
अपनी कोमल
पीठ छील-छीलकर
पत्थर सार-सार कर बनाये थे
लेकिन अब
गोया बूढे हो गये हैं ग्राम देव भी!
चुक गई लगती है उनकी शक्ति भी
क्योंकर नहीं बुला सकते वे
तुम्हें परदेश से अपने थान में?

दिदा!
तुम्हारा मन तो पत्थर हो गया है
लेकिन आज भी
हमारे भावुक हृदयों में
रिसता है स्मृतियों का खून
चौखम्भे के ग्लेशियरों की तरह
न चाहते हुए भी
जब-तब
गाँव की चाचियों
दादियों, धियाणियूँ के मुँह से
आ उचरता है तुम्हारा नाम
जो अथाह पीड़ा देता है
तुम से जुडे तुम्हारे अपनों को
क्या इस बात का
होता है तुम्हें कभी भान?

दिदा!
बार-बार
खुलते हैं कपाट
केदारनाथ व बद्रीनाथ के
बहती हैं उसी वेग से
पुण्य मंदाकिनी, भागीरथी व अलकनन्दा
भारत को छोड़
आते हैं सात समुन्दर पार के भी तीर्थयात्री
लेकिन नहीं आते, तो केवल तुम!!!

दिदा!
गाँव का बनकर न सही
एक तीर्थयात्री बनकर चले आओ
अब नहीं चढनी पड़ती
केदारनाथ की
चौदह किलोमीटर की विकट नाक सी धार सी चढाई
अब अगस्त्य ऋषि की पुण्यभूमि से
उड़ता है हैलीकॉप्टर
तुम्हारे लिए केवल दस हजार में
लेकिन मेरे लिए
दस हजार रूपये वैसे ही है
जैसे, सच में तुम्हें देखना

दिदा!
गाँव न आना चाहे
क्योंकि अब
बैठने के आदि हो गये होंगे तुम्हारे नाजुक पांव
थका देंगी तुम्हें गाँव की रूखी पगडंडियाँ
पर, उड़ जाना गाँव के ऊपर से
हैलीकॉप्टर में बैठकर
देखना, पुरखों का जीर्ण शीर्ण
कभी का अपना गाँव
हम धन्य हो जाएँगे
दुआएँ देंगे ग्रामदेव
स्नेह वत्सला भूमि!
मन ही मन
फूले न समाएँगी धियाणियाँ
व खण्डहर में दबे पुरखों के भाव
बस, दिदा!
एक बार आ जाओ
सात समुन्दर पार से!!!

शब्द सहायता
दिदा=बडे भाई साहब, बिख्वौत-बग्वाली=वैसाखीदीवाली, फुल-फुल माई=फूल संक्रांत, ढोली=औजी, ग्वस्यारों=मालिकों, गौंड़ा=शौच करने की जगह, अम्वख्या कर=घुट-घुट कर, मंड़ले=मंदिर, सार-सार कर=ढो-ढो कर,


१६ अगस्त २००३

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