अनुभूति में
श्रीनिवास श्रीकांत की रचनाएँ-
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कविता सर्वव्यापिनी
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मृत्यु
सरकण्डों में सूरज |
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मृत्यु
चकरघिन्नी के
सर्वोच्च बिन्दु पर
घूम रही थी
वह बाज़ की तरह
अव्यक्त
वायवीय मार्ग से चढ़ा था
उसने आसमान
आगे थी मृतात्मा
बहुत दूर कहीं
तैर रहे थे बुदबुद नक्षत्र
प्राणों का किया उसने
उत्सर्जन
और वह घुल गयी
ख़ला में
अनुभूति से परे
वह था एक परिन्दा ख़तरनाक
पहुँच गया था अहेरी
शिकार के
अन्तिम कगार पर
उसका आचरण था
एक उन्मादी
दबंग स्त्री की तरह
बज़ाया था उसने ज़ोर ज़ोर से
पंच तत्त्वों का शरीरी झुनझुना
पहले किया वक्र स्मित
फिर किया अट्टहास
फिर बदल गया था सबकुछ
एक असह्य चक्रवात में
ग़मगुसारों के पाँव की
हिल गयी ज़मीन
उन्हें स्मरण हो आया
अपना भावी अन्त
वे डरकर रोने लगे
एक साथ
शरीर को बाज़सम मृत्यु ने
पटक दिया था
करीब छः फुट भूमि पर
हो रही थी मरणोत्तर
अन्तिम यात्रा की तैयारी
आत्मा को बखेरा था
डाकिनी ने
ख़ला में रूई की तरह
फाहे बिखर गए
इधर उधर
नीचे पृथ्वी पर
अग्निदाह की प्रतीक्षा में था
मृतक का शव
सब कोस रहे थे
अव्यक्त शातिर मृत्यु को
अन्धों की तरह
अपनी प्रज्ञा में थे
पंखनुचे परिन्दे
मृत्योत्तर बची
सोच से क्षुब्ध
मानव वृन्द
डायन के आतंक से भयग्रस्त
वे जब लौटेंगे
अपने घर द्वार
प्रतीक्षा कर रही होगी
महामाया
एक और दिव्य कूटनी
उन्हें बाँध लेगी
सहज ही अपनी डोर से
नचाएगी उन्हें
कठपुतलियों की तरह
वे भूल जाएँगे
मृत्यु का क्रूर खेल
सत्वर
मृत्यु सचमुच
होती है लाजवाब
जब टूट पड़ती है
कर देती है सबको पस्त
शिकार कर लेती है
सहज ही
उसकी है
तेंदुआ घात।
२६ मार्च २०१२ |