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  चेतना
(चार मुक्तक)

कहीं बस्ती गरीबों की कहीं धनवान बसते हैं।
सभी मजहब के मिलकर के यहाँ इन्सान बसते हैं।
भला नफरत की चिन्गारी कहाँ से आ टपकती है,
जहाँ पर राम बसते हैं वहीं रहमान बसते हैं।

करे ईमान की बातें बहुत नादान होता है।
मिले प्रायः उसे आदर बहुत बेईमान होता है।
यही क्या कम है अचरज कि अभी तक तंत्र जिन्दा है,
बुजुर्गों के विचारों का बहुत अपमान होता है।।

सभी कहते भला जिसको बहुत सहता है बेचारा।
दया का भाव गर दिल में तो कहलाता है बेचारा।
है शोहरत आज उसकी जो नियम को तोड़ के चलते,
नियम पे चलने वाला क्यों बना रहता है बेचारा।।

अलग रंगों की ये दुनिया बहुत न्यारी सी लगती है।
बसी जो आँख में सूरत बहुत प्यारी सी लगती है।
अलग होते सुमन लेकिन सभी का एक उपवन है,
कई मजहब की ये दुनिया अलग क्यारी सी लगती है।।

२६ अप्रैल २०१०

 
 

 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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