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अनुभूति में सुधा अरोड़ा की
रचनाएँ -

लंबी कविता में-
शब्द सिर्फ शब्द... देश का कानून नहीं बदल सकते
(१९९५ में नयना साहनी (तंदूर) हत्या कांड और उसके बाद अंजू सिंह इल्यासी की आत्महत्या के बाद इसे लिखा गया।)

छंदमुक्त में-
महिला दिवस के अवसर पर- ''अकेली औरतें`` शृंखला की पाँच कविताएँ-
एक - यहीं कहीं था घर
दो - धूप तो कबकी जा चुकी है
तीन - जिन्हें वे संजोकर रखना चाहती थीं
चार - अकेली औरत का हँसना
पाँच- अकेली औरत का रोना

 

दो - धूप तो कब की जा चुकी है !

औरत पहचान ही नहीं पाती
अपना अकेला होना
घर का फर्श बुहारती है
खिड़की दरवाजे
झाड़न से चमकाती है
और उन दीवारों पर
लाड़ उँड़ेलती है
जिसे पकड़कर बेटे ने
पहला कदम रखना सीखा था।

औरत पहचान ही नहीं पातीं
अपना अकेला होना
अरसे तक
अपने घर की
दीवारों पर लगी
खूँटियों पर टँगी रहती है।
फ्रेम में जड़ी तस्वीरें बदलती है
और निहारती है
उन बच्चों की तस्वीरों को
जो बड़े हो गए
और घर छोड़कर चले गए
और जिनके बच्चे अब
इस उम्र पर आ गए
पर औरत के ज़ेहन में कैद
बच्चे कभी बड़े हुए ही नहीं
उसने उन्हें बड़ा होने ही नहीं दिया
अपने लिए ....
औरत पहचान ही नहीं पातीं
अपना अकेला होना
सोफे और कुशन के कवर
बदरंग होने के बाद
उसे और लुभाते हैं
अच्छे दिनों की याद दिलाते हैं
घिस घिस कर फट जाते हैं
बदल देती है उन्हें
ऐसे रंगों से
जो बदरंग होने से पहले के
पुराने रंगों से मिलान खाते हों
और पहले वाला समय
उस सोफे पर पसरा बैठा हो .....

औरत पहचान ही नहीं पातीं
अपना अकेला होना
अब भी अचार और बड़ियां बनाती है
और उन पर फफूंद लगने तक
राह तकती है
परदेस जाने वाले किसी दोस्त रिश्तेदार की
जो उसके बच्चों तक उन्हें पहुँचा सके ....

औरत पहचान ही नहीं पातीं
अपना अकेला होना
अब भी बाट जोहती है
टमाटर के सस्ते होने की
कि वह भर भर बोतलें सॉस बना सके
कच्ची केरी के मौसम में
मुरब्बे और चटनी जगह ढूँढते हैं
बरामदे से धूप के
खिसकने के साथ साथ
मुँह पर कपड़े बँधे
मर्तबान घूमते हैं .
बौराई सी
हर रोज़ मर्तबान का अचार हिलाती है
पर बच्चों तक पहुँचा नहीं पाती ...

आखिर मुस्कान को काँख में दबाए
पड़ोसियों में अचार बाँट आती है
और अपने कद से डेढ़ इंच
ऊपर उठ जाती है !
अपनी पीठ पर
देख नहीं पाती
कि पड़ोसी उस पर तरस खाते से
सॉस की बोतल और
मुरब्बे अचार के नमूने
घर के किसी कोने में रख लेते हैं ।
कितना बड़ा अहसान करते हैं
उस पर कि वह अचार छोड़ जाए
और अपने अकेले न होने के
भरम की पोटली
बगल में दबा कर साथ ले जाए ।

फिर एक दिन जब
हाथ पाँव नहीं चलते
मुँह से बुदबुदाहटें बाहर आती हैं
ध्यान से सुनो
तो यही कह रही होती है
अरी रुक तो ! जरा सुन !
धूप उस ओर सरक गई है
ज़रा मर्तबान का मुँह धूप की ओर तो करना ।

नहीं जानती
कि धूप तो कब की जा चुकी है
अब तो दूज का चाँद भी ढलने को है ......

७ मार्च २०११

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