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सुधा अरोड़ा

जन्मः ४ अक्तूबर १९४६ को विभाजन पूर्व लाहौर में जन्म।

शिक्षाः कलकत्ता विश्वविद्यालय से १९६७ में एम.ए., बी.ए. ऑनर्स- दोनों बार प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान।

कार्यक्षेत्रः १९६९ से १९७१ तक कलकत्ता के दो डिग्री कॉलेजों में अध्यापन, १९९३ से १९९९ तक महिला संगठन 'हेल्प' से संबद्ध।

प्रकाशनः बगैर तराशे हुए(१९६७), युद्धविराम(१९७७), महानगर की मैथिली(१९८७), काला शुक्रवार(२००३), काँसे का गिलास(२००४), मेरी तेरह कहानियाँ(२००५), रहोगी तुम वही(२००७), (कहानी संग्रह), ऑड मैन आउट उर्फ़ बिरादरी बाहर(एकांकी), यहीं कहीं था घर (२०१०),(उपन्यास)।

आलेख संग्रहः आम औऱतः ज़िंदा सवाल(२००८), एक औरत की नोटबुक।

संपादनः १९६६-६७ तक कलकत्ता विश्वविद्यालय की पत्रिका 'प्रक्रिया' का संपादन।

संपादित पुस्तकें- 'औरत एक कहानी' (२००२) भारतीय महिला कलाकारों के आत्मकथ्यों के दो संकलन- 'दहलीज़ को लाँघते हुए' और 'पंखों की उड़ान'(२००३)

सम्मानः 'युद्धविराम उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा १९७८ में विशेष पुरस्कार से सम्मानित साहित्य क्षेत्र में भारत निर्माण अवॉर्ड तथा अन्य पुरस्कार।

अनुवादः कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, पोलिश, इतालवी, चेक और जापानी भाषाओं में अनुदित, डॉ. दागमार मारकोवा द्वारा चेक, डॉ. कोकी द्वारा जापानी, हेंज़ वेस्लर द्वारा जर्मन तथा अलस्सांद्रे द्वारा इतालवी भाषा में कुछ कहानियों के अनुवाद।
लंदन के एक्सपरिमेंटल थिएटर द्वारा 'रहोगी तुम वही' का स्ट्रीट प्ले प्रस्तुत, चेक भाषा तथा इतालवी में भी अनूदित नाटक की प्रस्तुति।

स्तंभ लेखनः 'आम आदमीः ज़िंदा सवाल'- १९७७-७८ में पाक्षिक 'सारिका' में। १९९६-९७ में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर एक वर्ष दैनिक अखबार 'जनसत्ता' में साप्ताहिक कॉलम 'वामा' चर्चित। 'बवंडर' फिल्म की पटकथा का लेखन।

कई कहानियों पर मुंबई, दिल्ली, लखनउ, कलकत्ता दूरदर्शन द्वारा लघु फ़िल्में निर्मित। रेडियो नाटक, टी.वी. धारावाहिक तथा फ़िल्म पटकथाओं का लेखन। १९९३ से महिला संगठनों और महिला सलाहकार केंद्रों के सामाजिक कार्यों से जुड़ाव। टीआईएसएस, वूमेन्स वर्ल्ड तथा अन्य कई संस्थानों द्वारा आयोजित कार्यशालाओं में भागीदारी।

संप्रति- 'कथादेश' मासिक में 'औरत की दुनिया' स्तंभ का संपादन। वसुंधरा पुस्तक केंद्र संबद्ध।

संपर्क : sudhaarora@gmail.com 

 

अनुभूति में सुधा अरोड़ा की
रचनाएँ -

लंबी कविता में-
शब्द सिर्फ शब्द... देश का कानून नहीं बदल सकते(१९९५ में नयना साहनी (तंदूर) हत्या कांड और उसके बाद अंजू सिंह इल्यासी की आत्महत्या के बाद इसे लिखा गया।)

छंदमुक्त में-
महिला दिवस के अवसर पर- ''अकेली औरतें`` शृंखला की पाँच कविताएँ-
एक - यहीं कहीं था घर
दो - धूप तो कबकी जा चुकी है
तीन - जिन्हें वे संजोकर रखना चाहती थीं
चार - अकेली औरत का हँसना
पाँच- अकेली औरत का रोना
 

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