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अनुभूति में सुधा अरोड़ा की
रचनाएँ -

लंबी कविता में-
शब्द सिर्फ शब्द... देश का कानून नहीं बदल सकते
(१९९५ में नयना साहनी (तंदूर) हत्या कांड और उसके बाद अंजू सिंह इल्यासी की आत्महत्या के बाद इसे लिखा गया।)

छंदमुक्त में-
महिला दिवस के अवसर पर- ''अकेली औरतें`` शृंखला की पाँच कविताएँ-
एक - यहीं कहीं था घर
दो - धूप तो कबकी जा चुकी है
तीन - जिन्हें वे संजोकर रखना चाहती थीं
चार - अकेली औरत का हँसना
पाँच- अकेली औरत का रोना

  शब्द, सिर्फ शब्द...
देश का कानून नहीं बदल सकते !


सुनयना,
आज तू होती
तो अट्ठाइसवाँ वसंत देखती !

उस दिन भी तो
कमरे के बाहर वसन्त था
और अन्दर... ऐसे चेहरे
जो वसन्त को पतझर में बदल दें ।
डरे, सहमे चेहरे...
चेहरे -मुर्दनगी छाई थी जिन पर,
तरस खाती आँखें,
सिकुड़े हुए जिस्म....
जैसे वे मेरी तीसरी बेटी के जन्म पर नहीं,
उसकी मातमपुर्सी पर आए हों।

....और इन मुर्दा चेहरों से अनजान
तू लेटी थी मेरी बगल में
रूई के फाहे-सा मुलायम,
अपना खिला हुआ चेहरा लिए
अपनी मुँदी आँखें खोली थीं तूने
और मुस्कुराई थी।
तेरी खूबसूरत, चमकती
नीली आँखों पर,
मैंने तेरा नाम लिखा था - सुनयना ।

तभी चहकती हुई बड़ी़ बुआ दाखिल हुईं
' कैसा - गोरा-चिट्टा सलोना बच्चा !
हाय, मेरी नज़र न लगे ! `
बुआ ने तुझ पर से चादर हटाई
और मुँह सिकोड़ लिया,
लम्बी साँसें खींच तेरी सलवटोंवाली
त्वचा की जाँघों के बीच,
लगाई हल्की - सी चपत
और कोसा उस सिरजनहार को -
'हाय मेरे रब्बा ! इक्क होर कुड़ी,
बनाण वाले दे घर मिट्टी थुड़ गई सी ? `
(एक और लड़की ? तुझे बनाते समय मिट्टी कम पड़ गई थी ?)
शर्मिन्दा हुई तेरी माँ !
पैदा होते ही तुझे नंगा किया जा रहा था,
फौरन उघाड़ी हुई चादर खींच दी तुझ पर,
चादर उढ़ाकर तेरा आदर तुझे लौटा रही थी मैं ।

'बुआ, ऐसे बोल मत बोल!
मेरी बेटी भी है यह
और बेटा भी यही !
बेटा होता तो भी
इतनी ही तकलीफ देकर,
इतना ही खून बहाकर पैदा होता ! `

'बेटी तो बेटी ही रहती है, धिए,
इसे बेटा बनाने की जुर्रत न करना `
बुआ हँसकर चल दीं
पीछे छूट गई
एक समझदार व्यंग्य भरी हँसी ।
ठंडे, सख्त चेहरों से आँखें हटाकर
तुझे अपने साये की
ठंडी छाँव से ढँक दिया मैंने ।

उस साये के तले तू हँसने लगी,
तू खिलने लगी, तू खेलने लगी ।
तेरे नन्हें - नन्हें पाँव ज़मीन पर
डगमग चले, थिरके !
तेरे मुंह से बोल फूटे ।
तूने पहला शब्द बोला - माँ!
और तेरे साथ चहकी तेरी माँ!

तूने बस्ता काँधे पर लादा ।
तूने तोतले बोलों में गाए गाने,
और उन गानों पर
हाथ - पाँव नचाते,
आँखें मटकाते
तू सात बरस की हो गई ।

हर लड़की के साथ होता आया है जो
तेरे साथ भी हुआ
तू चौकस रहने लगी
लड़कों से परे परे,
चौकन्नी सी,
तूने अपने में
और उनमें फर्क करना सीखा !
सीखा तूने
आवाज़ों पर पीठ फेरना
और भीड़ में
कुहनियों का इस्तेमाल करना !
तू और बड़ी हुई,
समझदार भी !
क्लास में अव्वल आई ।
प्रतियोगिताएँ जीती
और शील्ड लाई ।
तेरा कमरा भर गया
तेरे मेडल और ट्रॉफियों से !


तू और बड़ी हुई
सपनों में लगी खोने
हवा में लगी उड़ने !
यह उम्र ही ऐसी थी !
तूने प्रेम किया एक लड़के से
तुम्हारे सपने एक थे,
खुशियाँ एक
पर मज़हब अलग !
हम सबने तुझे घेरा
कभी अपने आँसुओं का
कभी ममता का दिया वास्ता !
''मजहब बहुत बड़ी दीवार है,
समय रहते चेत जा !``
तू अपने भीतर लहूलुहान हुई
पर बदल दिया अपना रास्ता !

वक्त ने मरहम लगाया तेरे घावों पर
चिंदी चिंदी हुए अपने को समेटा तूने
बड़ी बड़ी डिग्रियाँ हासिल कीं,
बेटा जो न करता,
कर दिखाया तूने !
बुलंदियों को छूने के दौरान
अब तुझे मिला
अपने सपनों का एक और राजकुमार !
तेरी ही तरह
वह भी बातें करता था
बुलंदियों की, ऊँचाइयों की,
चाँद सितारों की
तेरी ही तरह
एड़ियों पर उचक उचक कर
छू लेना चाहता था आसमान !

अपनी बेटों-सी बेटी सुनयना को
सलमे - सितारेवाली
लाल साड़ी में लपेटकर हमने
गीली आँखों से तुझे विदा किया
तेरे सपनों के राजकुमार के साथ ।
यह तेरी ज़िन्दगी का आखिरी हादसा था ।
तेरे गले में अपने नाम का मंगलसूत्र पहनाकर
वह राजकुमार, राजकुमार नहीं रहा,
तेरा पति हो गया ।

तुझे सीढ़ी बनाकर वह उठता गया
ऊपर, और ऊपर
पीछे देखना नहीं चाहता था वह।
तूने अपने हाथ क्यों बढ़ाए उसकी ओर ?
वह आसमान की ओर बढ़ते तेरे हाथों को
रसोई की बन्द खिड़की के पास समेटना चाहता था,
जहाँ से एक टुकड़ा आसमान भी
तुझे साफ न दिखे !
क्यों नहीं मानी तूने उसकी बात ?

उसने तुझे तालों में बन्द कर दिया।
तुझे फिर भी दहशत नहीं हुई ?
तू उस तहखाने से निकलने के
रास्ते ढूँढ़ने लगी।
बन्द दरवाज़े के बाहर,
अपनी आवाज़ पहुँचाने की,
जुर्रत कर बैठी ।

सजा तो तुझे मिलनी ही थी
अपने पति से ऊँचा उड़ने की सज़ा,
अपने पति से बगावत करने की सज़ा,
अपने सपनों को सच में बदलने के
अरमानों की सज़ा ।
अपनी कोठरी से बाहर की दुनिया तक
सुरंगें खोदने की सज़ा ।
वह तुझ पर जुल्म ढाने लगा ।
तुझ पर पहरे बिठा दिए
अकेले कमरों में तेरा दम घुटने लगा
तूने अपने पैरों के नीचे की
ज़मीन को पहचाना ।
इस पर तुझे चलकर दिखाना है
और अपने हिस्से का आसमान
मुटि्ठयों में करना है बंद,
यह तूने ठान लिया था ।

अब कोई विकल्प नहीं बचा था उसके पास ।
इससे पहले कि तेरी आवाज़
उस कैद़खाने से बाहर निकले,
इससे पहले कि
आसमान की बुलन्दियों तक पहुँचें तेरे हाथ,
उसने तेरे उड़ते पंखों को कतर डाला ।
सितारों को छूने के लिए बढ़ते तेरे हाथों को
काटकर झोंक दिया भट्ठी की जलती आग में ।
जितनी तेज़ी से उस आग की लपटें फैली थीं,
उतनी ही तेज़ी से ठंडी भी हो गई ।

'हर ऐम्बिशन्स लेड टु हर डेथ !`
तीसरे दिन अखबार में सुर्खियाँ थीं ।
कि तेरा पति तेरे पहले प्रेमी को
बर्दाश्त न कर सका,
इसलिए गुस्से में अन्धा होकर
उसने तेरे चिथड़े कर डाले ।
कितना मुलायम है लड़की का चरित्र,
सुनयना !
उसे कुचलने में
एक मिनट भी नहीं लगता समाज को
इसके साथ ही तेरे लिए हिलारें लेती
हमदर्दी की लहरें शान्त हो गईं।

अपनी मौत का कारण तो तू खुद थी, सुनयना !
क्यों तूने पंख फैलाकर
आसमान की थाह लेनी चाही थी ?
घर की चौहद्दी से छिटक-छिटक जाती थी तू ?
क्यों इतने विकल्प थे तेरे पास
पति की दुनिया से अलग भी ?
तेरा पति तो मात्र निमित्त था ।
तूने खुद अपना अन्त किया ।
तेरी यह सज़ा तो सदियों पहले से
तय की जा चुकी थी ।
इसे बदला कैसे जा सकता था भला ?

फिर भी बार - बार
किया गया तेरा पोस्ट - मार्टम ...
तेरे जलने से बच गए
भूरे बालों का किया गया मिलान तेरी तस्वीर से ...
सुरक्षित रखी गई तेरी लाश
केमिकल्स के बीच महीने भर

तेरे कटे हुए अधजले अंग ...
आज चिता पर चढ़ने जा रहे हैं
अपने पति के ज़िन्दा रहने के
साज - सिंगार से लैस होकर !

सलमे - सितारोंवाली लाल साड़ी के
कफन में लिपटी सुहागन सुनयना !
क्या रखूँ तेरी चिता पर ?
सिवाय इन ठंडे, बेजान शब्दों के ....
जो तेरे किसी काम के नहीं !

शब्द, सिर्फ शब्द ...
देश का कानून नहीं बदल सकते !
न वे बन सकते हैं फाँसी का फन्दा,
जो तेरे हत्यारे के गले में डाला जा सके !

सफेद कागज पर लिखे ये काले अक्षर
रखती हूँ तेरी चिता पर !
ये सूखे पत्तों की तरह
तेरी चिता की आग को हवा देंगे
और बुझ जाएँगे उन चिनगारियों की तरह
जो राख में से उठती हैं !

तेरे साथ ही विलीन हो जाएंगे
ये अक्षर, ये शब्द !
हवा से हवा,
अग्नि से अग्नि,
जल से जल,
आकाश से आकाश,
मिट्टी से मिट्टी !
सब धुआं हो जाएगा ।
बस, रह जाएगी एक मुट्ठी राख !

पर सुन मेरी बच्ची !
अपनी कटी हुई हथेलियाँ
न फैलाना उस बनानेवाले के सामने
कि पिछली बार तुझे बनाते समय
उसने जो भूल की थी,
उसे सुधार ले !
नहीं ।
तुझे तो फिर फिर वही बनना है !
फिर फिर औरत !
सौ जनमों तक औरत !
तब तक औरत,
जब तक तेरे हिस्से का आसमान,
तेरे और सिर्फ तेरे नाम न कर दिया जाए !


१३ जून २०११

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