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अनुभूति में सुनील सिंह सजवान
की रचनाएँ -

छंदमुक्त में-
बापू की डगर
मैं क्या हूँ
ये वही शहर है

 

मैं क्या हूँ?

चूसकर मिट्टी
खुद को किया था
मुश्किलों से इतना बुलंद
कि मेरी छाँव तले
प्राणी आने लगे
तपन बुझाने लगे
राहत पाने लगे
चिलचिलाती धूप से।
कि तभी न जाने कहाँ से
एक कुल्हाड़ी आ गयी।
जो काटकर
मेरे अंगों को खा गयी।
मैं उसके आगे
रोता रहा - चिल्लाता रहा
परन्तु
उस पर कुछ फर्क पड़ा नहीं।
वो तो बस काटती ही गयी
एक-एक कर मेरे सभी अंगों को।
मैं अपने कटे हुए अंगों से
उत्पन्न भीषण दर्द के कारण
न जाने कब अचेत हो गया।
और जब चेतना लौटी तो
देखा कि मैं
पेड़ से फर्निचर हो गया।


८ नवंबर २००३

 

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