कुहासा
फैला कुहासा
चहुँ ओर धुन्ध
प्रकृति का उत्साह
पड़ गया है मंद
ये अलसाई-सी
सीली-सी दोपहर
मन पर पसरी
कोहरे की चादर
मन बुझा-बुझा
तन शीतल-सा
भीतर ही भीतर
कुछ घुटता-सा
प्रकृति संग
जुड़ा तन-मन
पंच-तत्व की काया
कहाँ जुदा हम ?
खिलती हैं कलियाँ
गाता है मन
हर आपदा संग
उजड़ता है जन
प्रकृति है जीवनाधार
असंख्य इसके उपकार
दें हम भी प्रतिदान कुछ
जीवन अपना लें सँवार
२ अप्रैल २०१२
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