अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में त्रिलोकीनाथ टंडन की रचनाएँ -

छंदमुक्त में-
मजदूर की दीवाली
मां तू बहुत याद आती है
मूर्तिकार की दीवाली
मेरी कविता

 

माँ तू बहुत याद आती है

जब भी कभी
मैं सोचता हूँ
अपने भीतर अवस्थित
कोमल और
कठोर भावनाओं के
संतुलन की बाबत
तब
मेरे सामने
आ खड़ा होता है
एक बीता हुआ युग
मेरा अपना बचपन
जिसमें मैंने पाए
वे संस्कार
जिन्हें मै अपने
सफल वर्तमान का
आधार मानता हूँ !
और तब माँ
तू बहुत याद आती है !

जब भी कभी
मैं एकाउन्टेंसी के
चक्रव्यूह को
भेद सकने में
स्वयं को पाता हूँ अवश
याद आता है
तब मुझे
एकाउन्टेंसी से अनिभिज्ञ
एक व्यक्तित्व
जो रोज़
नियमित रूप से

लिखता था
सटीक हिसाब
जमा और खर्च का
और/बिना कोई
औपचारिक शिक्षा के
रोल अदा करता था
परिवार के अर्थशास्त्री का !
और तब माँ
तू बहुत याद आती है !

बाबूजी के
सीधेपन
और भावुक स्वभाव का
लाभ उठा कर
जब जब
मैं भटका

अपनी राह से
तब तब
तेरा
वह थप्पड़ मारना मुझको
और फिर बड़बड़ाना
"कम्बख्त ने चूड़ियाँ मौला दीं"
अक्सर याद आता है !
ऐसे क्षणों को
जिन्होंन मज़बूती दी
मेरे व्यक्तित्व को सँवारा,
मैं अक्सर याद कर
फिर फिर जीता हूँ !
और तब माँ
तू बहुत याद आती है !

जब कभी
सोचता हूँ
उस हिना की बाबत
जो रंग लाती है
कुछ और ही
'पत्थर पे घिस जाने के बाद'
मुझे पता चलता है
महत्त्व
एक एक करके
कड़े अनुशासन के
हरेक उस पल का
जिसकी हर रगड़ ने
मेरे जीवन की
सफल यात्रा में जोड़े
न जाने कितने रंगों के
अनगिनित आयाम!
और तब माँ
तू बहुत याद आती है !

जब भी कभी
मैं स्मरण करता हूँ
युवावस्था और बचपन
के बीच की वय: संधि को
तब-तब
मैं/उन क्षणों को
पाता हूँ
अपने आसपास
जिनमें मैने
भोगा था
बड़ों द्वारा बच्चों को
डाँटने के पीछे छिपी
कल्याण भावना!
और प्रत्युत्तर में
बच्चों का
बचपने का कारण
खीज खीज जाना!
दोनों अनुभूतियों को एक साथ !
और तब माँ
तू बहुत याद आती है !

जब कभी
मेरी अपनी बेटी
बुरा भला कह जाती है
मुझे
मेरी कुछ बातों
कुछ कृत्यों की
प्रतिक्रया स्वरूप

जो उसे लगीं बुरी
पर जो कही गई थीं
मेरे हृदय की गहराइयों
से उपजे
उसकी भलाई के भाव से
तब मुझे
स्मरण हो आती हैं
बचपन में की गई
बे सारी बचकानी हरक़तें !
और तब माँ
तू
बहुत याद आती है !

जब भी कभी
मैं सोचता हूँ
दूसरों की
भरसक सहायता कर
बदले में
उनसे/जरूरत पड़ने पर भी
सहायता लेने से
हिचकिचाने के
अपने स्वभाव की
बाबत !
तो मैं पाता हूँ
कि बचपन में मिली
तेरी वह सीख
कि
"लोगों की उम्मीदें
जरूर पूरी करो
पर मत रखो बदले मे

उनसे कोई उम्मीद!"
बन गई है
मेरे लिए एक शक्ति!
और तब माँ
तू बहुत याद आती है !

जब भी कभी
दृष्टि डालता हूँ
तब से
अब तक की
सफल जीवन या्त्रा के
दाँव पेंच रहित
सीधे सुगम पथ पर,
मेरे सामने
आ खड़े हो जाते हैं
वो सभी क्षण
जिनमें मैनें पाया था
तेरे दिए
दिशा निर्देशों का
एसा प्रसाद
जिसकी महत्ता के
एक अंश मात्र को
मैं अब जाकर समझा हूँ !
और तब माँ
तू बहुत याद आती है !

१ अप्रैल २००५

 

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter