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अनुभूति में वशिनी शर्मा की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
अब क्या सोचना
क्या हूँ मैं
प्यार बस प्यार है
ये कैसा नारी विमर्श
शिला का अहिल्या होना

 

क्या हूँ मैं ?

क्या हूँ मैं ?
एक लड़की, एक बेटी, एक बहन
एक पत्नी, एक माँ, एक सास
वो तो हूँ ही
और क्या हूँ ?
अब इससे परे और क्या?
वाह! और क्या होना है ?
एक चेतन नारी, एक सजग नारी
नहीं, वह तो नहीं हो
क्यों?
क्यों क्या ?
कब तुमने कुछ कहा ?
कब तुमने कुछ किया ?
जो आया जैसा आया
सिर माथे स्वीकारती रही
पति, बच्चे, नाती, पोते
समय की देन भर रहे
तुम्हारा उसमें विशेष क्या?
आसपास भीड़ रही हरदम
तुम चलती रहीं, धँसती रहीं
क्या कोई नई लीक पकड़ी
क्या कभी मन बेक़ाबू हुआ?
तुम तो महज़ वक़्त काटती रहीं
वक़्त भी तुम्हें काटता रहा
तो अब अचानक क्या हुआ?
कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं
सब कुछ तो है पर ---
क्या ऐसा सबके साथ होता है?
शायद होता होगा
शायद नहीं भी होता होगा
हो तो भी पता नहीं लग पाता होगा
सोचने समझने की फुर्सत किसे है?
इस रपटीली राह में सिर्फ
बेहिसाब रपटन और फिसलन है
अंधी दौड़ , अंधाधुंध भागती ज़िंदगी
शायद जाना हो विराम की ओर
तब फिर मैं क्या हूँ ?
मैं कौन हूँ?

६ मई २०१३

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