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                   अनुभूति में
					रेखा राजवंशी की रचनाएँ — 
					 
					नई रचनाओं में- 
					कचनार के फूल 
					काली घटा 
					नयी हवा 
					मन वृदावन हो जाता 
					स्वप्न सा अतीत 
					अंजुमन में- 
					
					आइने का हर टुकड़ा 
					
					जिंदगी छलने लगी 
					जिंदगी धुंध 
					है 
					
					जैसे हर बात पे 
					
					दर्द के पैबंद 
					पिघलता 
					अस्तित्व 
					
					बर्फ के दायरे 
					शहर का मौसम 
                छंदमुक्त में— 
					अपनों की याद 
				कंगारुओं के देश से 
                दोस्ती 
					पिता 
					बदलाव 
					भाई को चिट्ठी 
					माँ दो कविताएँ 
					वक्त के पैबंद 
					विदेश में भारत 
					सफर एक औरत का 
				संदूक 
                 
					गीतों में- 
					ढूँढ रही हूँ चंदन 
					बचपन के दिन 
					छोटी कविताओं 
					में— 
					संगति 
					कैक्टस  
                रोको मत 
					
					लक्ष्मी 
        
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                   काली घटा
					  
					 
					खोल दी वेणी विरहणी ने किसी  
					फिर गगन पर छा गई काली घटा  
					 
					नूर बरसा है किसी की आँख का  
					कि धरा तक आ गई काली घटा  
					 
					चूड़ियाँ खनकीं कहीं कुछ नेह कण  
					बावरी बिखरा गई काली घटा  
					 
					बन गई दर्पण धरा मुख देखती  
					आज फिर इठला गई काली घटा  
					 
					पड़ गए झूले सखी को संग ले  
					गीत कोई गा गई काली घटा  
					 
					कौन जाने भीगते कब तक रहें  
					मन को भी अब भा गई काली घटा 
					 १ सिंतंबर २०१८ 
					 
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