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                      अनुभूति में
                      शिखा 
						वार्ष्णेय की रचनाएँ 
                      छंदमुक्त में-चाँद और मेरी गाँठ
 जाने क्यों
 पर्दा धूप पे
 पुरानी कमीज़
 यही होता है रोज़
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                      पर्दा धूप पे
 ना जाने कितने मौसम से होकर
 गुजरती है जिन्दगी
 झड़ती है पतझड़ सी
 भीगती है बारिश में
 हो जाती है गीली
 फिर कुछ किरणें चमकती हैं सूरज की
 तो हम सुखा लेते हैं जिन्दगी अपनी
 और वो हो जाती है फिर से चलने लायक
 कभी सील भी जाती है
 जब कम पड़ जाती है गर्माहट
 फिर भी टाँगे रहते हैं हम उसे
 कड़ी धूप के इन्तजार में
 आज निकली है छनी सी धूप
 पर फिर से किसी ने सरका दिया है पर्दा
 मेरी जिन्दगी पर पड़ती हुई धूप पे
 
                      २६ सितंबर 
						२०११ |