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                      अनुभूति में
                      शिखा 
						वार्ष्णेय की रचनाएँ 
                      छंदमुक्त में-चाँद और मेरी गाँठ
 जाने क्यों
 पर्दा धूप पे
 पुरानी कमीज़
 यही होता है रोज़
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                      पुरानी कमीज
 कल रात
 किवाड़ के पीछे लगी खूँटी पर टँगी
 तेरी उस कमीज पर नजर पड़ी
 जिसे तूने ना जाने कब
 यह कह कर टाँग दिया था कि
 अब यह पुरानी हो गई है।
 और तब से
 कई सारी आ गईं थीं नई कमीजें
 सुन्दर, कीमती, समयानुकूल
 परन्तु अब भी जब हवा के झोंके
 उस पुरानी कमीज से टकराकर
 मेरी नासिका में समाते हैं
 एक अनूठी खुशबू का एहसास होता है
 शायद ये तेरे पुराने प्रेम की सुगंध है
 जो किसी भी नई कमीज़ से नहीं आती
 इसीलिए मैं जब तब उसी की आस्तीनों को
 अपनी ग्रीवा पर लपेट लेती हूँ
 क्योंकि कमीजें कितनी भी बदलो
 प्रेम नहीं बदला जाता
 
                      २६ सितंबर 
						२०११ |