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अनुभूति में शिखा वार्ष्णेय की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
चाँद और मेरी गाँठ
जाने क्यों
पर्दा धूप पे
पुरानी कमीज़
यही होता है रोज़

 

यही होता है रोज़

रोज जब ये आग का गोला
उस नीले परदे के पीछे जाता है
और उसके पीछे से शशि
सफ़ेद चादर लिए आता है
तब अँधेरे का फायदा उठा
उस चादर से थोड़े धागे खींच
अरमानो की सूई से मैं
कुछ सपने सी लेती हूँ
फिर तह करके रख देती हूँ उन्हें
अपनी पलकों के भीतर
कि सुबह जब सूर्य की गोद से कूदकर
धूप मेरे आँगन में स्टापू खेलने आएगी
तब इन सपनो को पलकों से उतार कर
उसकी नर्म गर्म बाँहों में रख दूंगी
शायद उसकी गर्मजोशी से
मेरे सपने भी खिलना सीख जाएँ।
पर इससे पहले ही घड़ी के अलार्म से
मेरी पलकें खुल जाती हैं
और सारे सपने
कठोर धरातल पर गिर टूट जाते हैं

२६ सितंबर २०११

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