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अनुभूति में रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' की रचनाएँ

कविताओं में-
काँटे मत बोओ
काननबाला
चुकने दो
तुम्हारे सामने
तृष्णा
द्वार खोलो
दीपक माला
धुंध डूबी खोह
पास न आओ
पावस गान
फिर तुम्हारे द्वार पर
मत टूटो
मेरा दीपक
ले चलो नौका अतल में

संकलन में
ज्योति पर्व-दीपावली
ज्योति पर्व- मत बुझना
तुम्हें नमन-बापू
ज्योतिपर्व- दीपक मेरे मैं दीपों की

  मेरा दीपक

मैं थकी जला कर बार-बार, मेरा दीपक बुझ जाता है
है नहीं स्नेह की कमी - लगी है यौवन की नूतन बाती
पर पवन झकोरे से कंपित वह लौ को नहीं पकड़ पाती
हो रहा कठिन इस ज्योति-स्पर्श का पल भर तो स्थिर रहना
यह घिरी तिमिर की भीड़ ज्वाल के सपने से भी कतराती
मैं जल-जल रचती गीत, न स्वर का दीप मगर जल पाती है

मेरे धूमावित सपनों को घेरे है घुटनभरी कारा
मैं पाकर भी खो-खो देती पीली सेंदुरी किरण-धारा
मैं दिया जलाती - बुझ-बुझ जाता जो झंझा झकझोरों से
यह युग-युग व्यापी दाह-न मिलता जिसे विभा का ध्रुव तारा
कितना भी आँचल ओट करूँ यह दीपक बढ़-बढ़ जाता है

कितनी उन्मत्त बयार न जो मेरा प्रदीप जलने देती।
वह कैसी मेरी परवशता जो मुझे पराजित कर देती
अक्षय मेरी आकांक्षा का वह जलने का बुझने का क्रम
मैं इसी सत्य की छाँह गहे जीती तृष्णा का कर देती
नृत्यातुर चपल उँगलियों का उल्लास पिघलता जाता है

मैं विकल खड़ी हेरती गगन में उगते चंदा की जोती
मेरे प्रदीप मे काश! यही शीतल आलोक-शिखा होती
वह एक बार जल कर रजनी भर नाम न बुझने का लेता
लौ भरी सीप में स्थिर रहता मेरी तन्मयता का मोती
मैं थकी जला कर बार-बार मेरा दीपक बुझ जाता है

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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