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अनुभूति में दिवाकर वर्मा की रचनाएँ-

नए गीतों में-
कलफ लगे खादी के कुरते
कहाँ गए दिन
गंगाराम
दिन
सूप खटकाती रही
 

गीतों में-
आदमी बौना हुआ है
चिठिया बाँच रहा चंदरमा
चेहरे से सिद्धार्थ
नदी नाव संजोग
नागफनियाँ मुस्कान में
पटरी से गाड़ी उतरी
फुनगी पर बैठा हीरामन
मैं वही साखी

राम जी मालिक
हुमकती पवन

 

कलफ लगे खादी के कुरते

सड़कों पर
फिर मचक रहे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।

मन कौए का बगुले सा तन
मगरमच्छ-आँसू ले डोलें,
लगें धूप में छाँव घनेरी
कोयल जैसी बोली बोलें,
रह-रह कर
बस कुहक रहे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।

कितने षिलान्यास-लोकार्पण
उद्घाटन की खबरें बनकर,
पटे पड़े हैं अखबारों में
छायाचित्रों में सज-सजकर,
सिक्कों से
अब खनक रहे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।

पहन-पहन गणवेष मौसमी
तन के उजले मन के कारे
प्रजातंत्र की शरद-जुन्हैया
चले ब्याहने ये अँधियारे,
दूल्हा बन
कर ठसक रहे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।
विनम्रता हो मूर्त, भाल नत
हाथ जोड़ सड़कों पर घूमें,
आम आदमी के चरणों को
खास आदमी झुक-झुक चूमे,
बोल मधुर
ले चहक रहेे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।

२२ अगस्त २०११

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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