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अनुभूति में हरीश भादानी की रचनाएँ—

नये गीतों में-
कोलाहल के आँगन
तो जानूँ
साँसें
साँसों की अँगुली थामे जो
सुई

गीतों में-
कोई एक हवा
टिक टिक बजती हुई घड़ी
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए
धूप सड़क की नहीं सहेली
ना घर तेरा ना घर मेरा
पीट रहा मन बन्द किवाड़े
सभी दुख दूर से गुजरे

 

कोलाहल के आँगन!

दिन ढलते-ढलते कोलाहल के आँगन
सन्नाटा रख गई हवा
दिन ढलते-ढलते

दो छते कंगूरे पर
दूध का कटोरा था
धुंधवाती चिमनी में
उलटा गई हवा
ढलते-ढलते

लोहे से बतियाते
प्रश्नों के कारीगर
आतुरती ड्योढ़ी पर
साँकल जड़ गई हवा
दिन ढलते-ढलते

कुंदनिया दुनिया से
झीलती हक़ीक़त की
बड़ी-बड़ीआँखों को
अँसुवा गई हवा
दिन ढलते-ढलते

हरफ़ सब रसोई में
भीड़ किए ताप रहे
क्षण के क्षण चूल्हे में
अगिया गई हवा
दिन ढलते-ढलते

१३ अक्तूबर २०१४

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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