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अनुभूति में हरीश भादानी की रचनाएँ—

नये गीतों में-
कोलाहल के आँगन
तो जानूँ
साँसें
साँसों की अँगुली थामे जो
सुई

गीतों में-
कोई एक हवा
टिक टिक बजती हुई घड़ी
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए
धूप सड़क की नहीं सहेली
ना घर तेरा ना घर मेरा
पीट रहा मन बन्द किवाड़े
सभी दुख दूर से गुजरे

 

साँसों की अँगुली थामे जो!

साँसों की अँगुली थामे जो
आए क्वाँरी साध तो
गीतों से माँग सँवार दूँ
मैं रागों से सिंगार दूँ

संकेतों की मनुहार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो

गीतों के आखर को सुर्खी
दी है तीखी धूप ने
रागों के स्वर को आकुलता
दी लहरों के रूप ने
तट सा मौनी सपना कोई
चाहे मेरा साथ तो
पीड़ा-सा उसे उभार दूँ
सौ आँसू उस पर वार दूँ

आशाओं के उपहार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो

मेरे गीतों को ढलुआनें
दीं झुकते आकाश ने
रागों को बढ़ना सिखलाया
वनपाखी की प्यास ने
शूलों से बतियाते कोई
आए मुझ तक पाँव तो
मैं बाँहों को विस्तार दूँ
मैं दो का भेद बिसार दूँ

परछाई सा आकार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो

मेरे गीतों को गदराया
सावन की सौगात ने
रागों को गूँजें दे दी हैं
मेघों की बारात ने
रिमझिम बरखा जैसी कोई
बरसे मुझ पर याद तो
मैं मन की जलन उतार दूँ
मैं धुँधले पंथ निखार दूँ

मैं सारा सफर गुजार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो

मेरे गीतों में सागर की
अनदेखी गहराई है
मेरी रागों के सरगम में
मौजों की तरुणाई है
सूनेपन से सिहरी-सिहरी
बहके कोई नाव तो
मैं मलयाई पतवार दूँ
मैं हर क्षण फेनिल प्यार दूँ
मैं कोई तीर उतार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो

आए क्वाँरी साध तो
गीतों से माँग सँवार दूँ
मैं रागों से सिंगार दूँ
संकेतों की मनुहार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो

१३ अक्तूबर २०१४

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