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                    सन्नाटा 
                    भूख जहाँ दरवाज़ा खोले 
                    रोशनदान रहें अनबोले 
                    परदों की कट गई भुजाएँ 
                    अंधी दीवारें चिल्लाएँ 
                    सन्नाटा क्यों आँख दिखा कर 
                    मुझ पर हँसता है 
                    आँखों में चुभते हैं दाने 
                    पत्थर को रख कर सिरहाने 
                    आदम सोता है 
                    ज़हर हो गई जहाँ दवाई 
                    खाल खींचते रहे कसाई 
                    जिसे देखिए वही राह में 
                    काँटे बोता है 
                    आँखों में चिनगारी डोले 
                    रामू भीगी पलकें खोले 
                    सूरज खीस निपोरे 
                    मुझ पर ताने कसता है 
                    चुप है मौसम आँखें मीचे 
                    सूख रहे हैं बाग बगीचे 
                    बोलो किस पर दोष लगाएँ 
                    करवट लेती रही दलीलें 
                    दस्तावेज़ बिना तफ़सीलें 
                    गुनहगार हमको समझाएँ 
                    कौन यहाँ पर पोलें खोले 
                    जहाँ तराजू ही कम तोले 
                    पड़े होंठ पर ताले खोले 
                    बाज़ शिकारी-सा हमको 
                    पंजों में कसता है 
                    सन्नाटा क्यों आँख दिखा कर 
                    मुझ पर हँसता है    
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