| 
                    लोकतंत्र की 
                    चिंता में सुनहरे 
                    स्वप्न में 
                    जलकर हुए हैं 
                    खाक परवाने,  
                    मुझे उस लौ की चिंता है 
                    जो बुझती जा रही यारो। 
                    किसी के हाथ में 
                    तस्वीर है कल की 
                    कोई आँसू बहाता  
                    जा रहा है आज पर,  
                    जिन्हें भ्रम हो गया 
                    होगा,  
                    उजालों का  
                    वही आँगन अंधेरा  
                    ला रहा है, 
                    काज कर  
                    तरसते काम को दो हाथ 
                    उघड़ जाता है तन और मन 
                    करें क्या हर निवासों मे 
                    अंधेरे ही अंधेरे है। 
                    मुझे उस लौ की चिन्ता है 
                    जो बुझती जा रही यारो। 
                    ८ जून २००९  |