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अनुभूति में मदन मोहन अरविंद की रचनाएँ-

नई रचनाओं में-
चुप रहना हो
जो वफा से
डाल हिलाकर देखो
मैं चला तुम भी चलो
हाथ गैरों से मिलाया

गीतों में-
कह दो किसी और घर जाए
साहिल को अपनाना हो तो
हर दुख पर इतना भर कह ले

अंजुमन में—
अच्छा लगता है
कैद हैं साँसें
छत मैं तुम आँगन
जिंदगी के जश्न
दिन गया
दिल को बहला जाती थी
देखना चाहे इधर
पत्थरों को आइना कैसे कहूँ
पतझड़ को न देना तूल
बड़ी बेजोड़ ये सौग़ात होती
भूख का मतलब
रात सुलाती
रोज खुले मे
वक्त की दरियादिली
वक्त ने दो ग़म दिए

वही सूरत वही साया
वो टहलते वक्त
शोर भारी हो रहा है

कुंडलियों में-
पाँच मौसमी कुंडलियाँ

  चुप रहना हो

चुप रहना हो तब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ
सच कहता हूँ जब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ

कितने मौसम बीत चुके हैं कितने सूरज डूब गए
कब की बातें कब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ

हंसते हिलते आहें भरते कब देखा था याद नहीं
पत्थर हैं पर लब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ

समझ लिया क्यों दर्द मिले हैं आज दुआ के बदले में
शैतानों को रब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ

कुछ मिटने का खौफ नहीं कुछ आदत की मज़बूरी है
जो दिल में है सब कहता हूँ मैं भी कितना पागल हूँ

१४ मई २०१२



 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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