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अनुभूति में ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग' की रचनाएँ -

अंजुमन में नयी ग़ज़लें-
अपना-अपना मधुकलश
चाँद बनाकर
जहाँ चलना मना है
धर्मशाला को घर
फूल के अधरों पे
 

गीतों में-
कहाँ पे आ गए हैं हम
जैसे हो, वैसे ही
सात्विक स्वाभिमान है
गीत कविता का हृदय है

 

जैसे हो, वैसे ही

कोई भी गुण अवगुण आरोपित मत करना
जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

मंज़िल तक एक भी नहीं पहुँची
कहने को कई-कई राहें थीं
मन में थी आग-सी लगी, तन के
पास बहुत पनघट की बाँहें थीं
मत रखना कोई उम्मीद घिरे बादल से
ऊसर की आँखों का पंचामृत पी लेना
जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

नग्न देवताओं का चित्रण ही
मानक है आधुनिक कलाओं का
बाज़ारों में जो बिक सकती हैं
रास ही है झूठ उन कथाओं का
रास जो न आए, नव-संस्कृति का यह दर्शन
देखना न सुनना, निज अधरों को सी लेना
जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

शंखनाद जिनको करना था वे
हैं तोता-मैना से संवादी
करनी की पत्रावलियाँ कोरी
कथनी की ढपली है फौलादी
कस लेना सौदे के सत्य को कसौटी पर
पीतल को पीतल के दामों में ही लेना
जो भी हो, जैसे हो, वैसे ही जी लेना।

1 जुलाई 2006

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