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पर्वत और नदी
 
पहाड़ी घाटी के बीच बहती नदी
घने जंगल के धुँधलके में
पत्थरों के बीच से गुजरती
वह कमनीय, कलकल करती नदी।
एक पत्थर पर मैं
दूसरे पर बैठी थी 'तुम'।
बहते जल में पाँव लटकाए
नदी के बीचोबीच।
चुपचाप।
कानों में घुलती
नदी और पक्षियों की
एक सी आवाज।
कभी–कभी हवा बहती, और
खड़खड़ाकर गिर जाते
ढेर सारे सूखे पत्ते।
कई बार,
धीमे से कुछ कहकर
चुप हो जाती तुम।
और कई बार
चाहता था मैं
कह डालूँ, कईं बातें।
उसी रोज कहा था तुमने
नदियाँ पसंद हैं तुम्हें।
और मुझे पर्वत
बता दिया था मैंने भी।
और सोचा कि कह दूँ
पा ही लिया पर्वत ने नदी को।
मगर,
न कहा, ठीक किया।
कुछ ही देर बाद
सिसक रही थी तुम
गाड़ी में बैठी।
और
टटोलकर भी तलाश नहीं सका मैं
तुम्हारे जख्म।
कल ही तो
तुमने कह ही दिया
कि फ़ोन नहीं किया करूँ तुम्हें।
नदी की तरह
दिन ब दिन फिसलती रही तुम।
और मैं— पर्वत
बिखरता रहा
टूट–टूटकर।

९ मई २००६

 

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