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सुबहें

 

 

सुबहें

काश! मेरी सुबहें इतनी हरी हों
कि कोई मौका न हो
टोटका बुनने का।
यानि यह हिसाब लगाने का
कि दिन शुभ हो या अशुभ।
आँखों को देखने का मौका तक न हो
होठों को गिनने की फुरसत भी नहीं।
सुबहें ऐसी हों कि इनमें मैं भी न रहूँ,
हवाओं में लिपटी खुशबू भी
झकझोर कर ही अहसास दिला पाए।
चीज़ें उलट–पुलट हो जाएँ
और सजाने का मौका तक न मिले।
या ऐसी तो हों ही कि
कम से कम कविताएँ लिखने का खयाल न आए।
यानि ऐसी-
झटपट नहाकर बाहर निकलने की हड़बड़ी जैसी
या चाय बनाकर
सबको जगा देने की खुशी जैसी।
या फिर
चुपचाप
सड़कों पर निकल जाऊँ
अकेला।
हवाओं में उत्तेजना की थरथराहट
बिखेरता।

९ मई २००६

 

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