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अनुभूति में राकेश कौशिक की रचनाएँ—

हास्य-व्यंग्य में—
अधूरा सपना
गुड़िया की पुड़िया
नटखट गोपाल
हथियार


संकलन में—
हिंदी के प्रति–अलख

 

अधूरा सपना

सुबह से हो गई शाम एक दिन आँख ज़ोर से फड़की।
रात को देखा स्वप्न बन गया लड़के से मैं लड़की।
जल्दी की सुबह फिर भी लग गई देर सजने में।
भाग न पाया हाई–हील से बस निकली इतने में।
देर से दफ़्तर पहुँचा लेकिन सर ने आज न डाँटा।
प्यार से पूछा देर हुई क्यों मेरा सुख–दुख बाँटा।
पहला दिन जीवन का मैंने बौस की डाँट न खाई।
वरना सुबह–सुबह ही मेरी होती रोज खिंचाई।
नहीं हुआ विश्वास मुझे लगता था धोखा खाया।
डुप्लीकेट बौस हैं या किसी दूसरे दफ़्तर आया।
सीट–वर्क तो दूर पर्सनल काम भी नहीं कराया।
कम–इन कहा मुझे केबिन में अपने पास बुलाया।
धीरे से बोले मुझसे मेरी बात गौर से सुनना।
औरों जैसा नहीं हूँ मैं टेंशन बिल्कुल मत करना।
सोफट–कार्नर देख साहब का खोला मैंने लौक।
लोग बुराई करें तुम्हारी दे दिया उनको शॉक।
हुआ शॉक का असर कहा तुम छोड़ो सारे काम।
कौन–कौन क्या बातें करते सुनो लगाकर कान।
नहीं काम की चिंता अब तो यों ही दिन कट जाते।
मैं करता आराम काम साहब खुद ही निपटाते।
गोल–मोल बातें करके मैं साहब को उलझाता।
जब चाहे दफ़्तर आता और जब चाहे घर जाता।
फिर भी मान और सम्मानों पर पहला हक बनता।
सर का राइट–हैंड उसी का भत्ता मुझको मिलता।
टूटा स्वप्न अनूठा मुझको फिर से निद्रा आई।
जागा सुबह कंपकंपी छूटी दफ़्तर की सुध आई।
ड्राइक्लीनिंग करी बहुत जल्दी भी घर से निकला।
फिर भी हो गया लेट सीढ़ियों से मैं उल्टा फिसला।
टूटाफूटा रूम में पहुँचा सर ने तभी बुलाया।
वन–आवर का दिया लैक्चर अक्ल का पाठ पढ़ाया।
उतरा नहीं खुमार अभी तक रहा स्वप्न का ध्यान।
साहब जी से कर बैठा मैं सीधे–सीधे बयान।
कल की ही तो बात है सर तुम मेरे ही गुण गाते।
आज हो गया क्या जो मुझको कोसों दूर भगाते।
बस फिर क्या मैंने देखी सर के गुस्से की बाढ़।
आव न देखा ताव उन्होंने मारी मुझे लताड़।
सारे अवगुण पहले ही थे अब तमीज़ भी भूले।
कर दूँगा सी–आर लाल जो फिर तुम कह कर बोले।
धेले–भर का काम न करते बातों का खाते हो।
कार्यालय मुझसे चलता तुम मुझको समझाते हो।
देख साहब को बेकाबू मैं बन गया भीगी बिल्ली।
सोचा गई नौकरी अब तो छोड़नी होगी दिल्ली।
चुप ही रहा सोच कर मैं अपना नुकसान करूँगा।
फिर वही सपना देखूँगा तब इनसे बात करूँगा।
फड़की नहीं आँख दोबारा बहुत करी थी ट्राई।
मैडीकल स्टोर पर पूछा मिली न कोई दवाई।
लाखों किए उपाय मगर वह सपना फिर नहीं आया।
फिर न मिले सपने में "कौशिक" रह–रह कर पछताया।

२४ अक्तूबर २००५

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