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अनुभूति में राकेश कौशिक की रचनाएँ—

हास्य-व्यंग्य में—
अधूरा सपना
गुड़िया की पुड़िया
नटखट गोपाल
हथियार


संकलन में—
हिंदी के प्रति–अलख

 

नटखट गोपाल

मैं और मेरी जया दोनों खुशहाल
एक था हमारा नटखट गोपाल
चौथी में पढ़ता था उम्र नौ साल
जान से प्यारा हमें अपना लाल
तमन्ना थी मैं खूब पैसा कमाऊँ
अपने लाड़ले को एक बड़ा आदमी बनाऊँ
उसे सारे सुख दूं ऐसी भी चाहत
इसलिए देर से घर लौटने की पड़ गई थी आदत
मैं उसको वांछित समय न दे पाता
मेरे आने से पहले वह अक्सर सो जाता
कभी–कभी ही रह पाते हम दोनों साथ
लेशमात्र होती थीं आपस में बात
एक दिन अचानक में जल्दी घर आया
बेटे को उस दिन जगा हुआ पाया
पास जाकर पूछा क्या कर रहे हो जनाब
तो सवाल पर सवाल किया पापा एक बात बताएँगे आप
सुबह जाते हो रात को आते हो
बताओ एक दिन में कितना कमाते हो
सुनते ही प्रश्न मैं सकपकाया
खुद को असमंजस के घेरे में पाया
मुझे मौन देख बोला क्यों नही बताते हो
आप रोज़ाना कितना कमाते हो
मैंने उसे टालते हुए कहा ज़्यादा बातें न बनाओ
तुम अभी बच्चे हो पढ़ाई में मन लगाओ
वह नहीं माना मेरी कमीज़ खींचते हुए फिर बोला
जल्दी बताओ–जल्दी बताओ
मैंने झिड़क दिया यह कह कर कि
बहुत बोल चुके अब शांत हो जाओ
देखकर मेरे तेवर उसका अदना सा मन सहम गया
मुझे लगा वह मान गया है
या मैं गुस्से में हूँ पहचान गया है
मैं चुप उसके कमरे से बाहर आया
पलभर बैठा सिर झटकाया
तो मन में विचार आया बता ही देता हूँ
उसके चंचल मन को शांत कर देता हूँ
उल्टे पाँव पहुँचा फिर उसके पास
सुनो बेटा बताता हूँ
मैं एक दिन में हज़ार रुपये कमाता हूँ
वह खिल उठा और तपाक से बोला
पापा आप मुझे दो सौ रुपये दे देना
और कुछ ही दिनों में वापस ले लेना
पैसों की सुनते ही मैं झुँझलाया
माथा ठनका और बौखलाया
सोचा न समझा बेहिसाब डाँटा
उठा दिया हाथ मारा एक चाँटा
तुम्हें अच्छा ख़ासा जेब–खर्च मिलता है
उसमें भी काम नहीं चलता है
मै अनाप–शनाप बोलकर उसे डपट रहा था
उसकी आँखों से अविरल नीर टपक रहा था
वह फूट–फूट कर रोया और सुबकते हुए बोला
पापा आप जो जेब–खर्च देते हैं
वह सारे पैसे मैंने बचाए हैं
फिर भी मुझसे अब तक
केवल आठ सौ रुपये ही जमा हो पाए हैं
आप से दौ सौ इसलिए माँग रहा हूँ
कि हज़ार पूरे करके
आपका एक दिन ख़रीदना चाह रहा हूँ
उस दिन आपको रखूँगा मैं अपने साथ
काम पर जाने की मत करना बात
आपकी गोद में बैठकर खूब मस्ती करूँगा
और रात को प्यारी सी लोरी सुनूँगा
मैं अवाक और अपलक उसे निहार रहा था
फिर बाँहों में भरकर पुचकार रहा था
मन ही मन खुद को दुत्कार रहा था।

२४ अक्तूबर २००५

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