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अनुभूति में राकेश कौशिक की रचनाएँ—

हास्य-व्यंग्य में—
अधूरा सपना
गुड़िया की पुड़िया
नटखट गोपाल
हथियार


संकलन में—
हिंदी के प्रति–अलख

 

हथियार

खट–पट रहती हम दोनों में शायद ही पटती थी।
मैं कहता पूरब की तो वह पश्चिम को चलती थीं।
हुआ अचंभा उस दिन जब वो बैठीं मेरे पास।
प्यार से बोलीं सुनो पिया जी मेरे दिल की बात।
खोज लिया है अब तो मैंने एक अनोखा यंत्र।
पंगा लिया किसी ने तो अब कर दूँगी विध्वंस।
पास सभी के रहता लेकिन करें न ठीक प्रयोग।
मैंने करना सीख लिया है इसका सदुपयोग।
इतना तेज कि पलक झपकते हाज़िर हो जाता है।
कहाँ छुपा रखती हूँ कोई समझ नहीं पाता है।
ना डीज़ल ना पैट्रोल ये फिर भी घंटों चलता।
अच्छे–अच्छे तीस–मार–खाँ को वश में कर सकता।
कम–ज़्यादा आवाज़ हो जाती बिना आवाज़ भी चलता।
फुल वौल्यूम करो तो सुनकर शेर भी गीदड़ बनता।
हरदम रखूँ पास न जाने कब पड़ जाए काम।
मिनटों में कर देता ये दुश्मन का काम तमाम।
क्या–क्या करूँ बखान इसे तुम रामबाण ही जानो।
जितनी भी तारीफ़ करूँ उसे उतना ही कम मानो।
बड़े काम की चीज़ लगी सोचा मैं भी न डरूँगा।
मेरे भी कई दुश्मन है मैं अब उनको देखूँगा।
बोला हे गुरूदेवी अपना चेला मुझे बना लो।
गुरूमंत्र देकर मुझे इसका इस्तेमाल सिखा दो।
तिरछी नज़र करी और बोलीं कान इधर को कर लो।
गुण तो जान लिए इसके अब चेतावनी भी सुन लो।
मैं तो हूँ होशियार तुम कभी कोशिश भी मत करना।
उल्टा अगर चल गया तो फिर मुझे दोष मत देना।
इतना कहकर चुप्पी साधी करी न मुझसे बात।
मैं डर के मारे नहीं बोला किस्सा हुआ समाप्त।
गुज़रा वक्त एक दिन बीबी ने मुझसे फरमाया।
पीहर जाने का दिल है सावन का महीना आया।
नई–नवेली जाती हैं मैं बोला मत इतराओ।
कुछ तो शर्म करो देवी तुम दो बच्चों की माँ हो।
अन्नपूर्णा रसोई देवी थोड़ा तरस तो खाओ।
रोटी कौन बनाएगा इतना ही मुझे बताओ।।
स्वयं बनाकर खाना बोलीं महीने में आऊँगी।
हो जाओगे टें्रड लौटकर तुमसे बनवाऊँगी।
शामत आई देख मैं बोला कभी नहीं मानूँगा।
हाथ जोड़ लो नाक रगड़ लो पर जाने नहीं दूँगा।
फिर क्या हुआ ये मत पूछो ललकारा ऐसे मुझको।
कहा था पंगा मत लेना अब ले लिया है तो भुगतो।
तमतमा गया चेहरा आँखें सुर्ख हो गईं लाल।
वही ख़ास हथियार किया मुझपर ही इस्तेमाल।
ज्यों ही देखा मैंने उसका हुलिया रंग और रूप।
डर के मारे आधा रह गया उड़ी प्यास और भूख।
फिर जो सुनी दहाड़ यंत्र की मैं ऐसा घबराया।
छोड़ दिया मैदान भागकर घर से बाहर आया।
सोचा शायद डरा रहीं हैं समझ के निपट अनाड़ी।
मैं भी खेला–खाया था कोई कच्चा नहीं खिलाड़ी।
हिम्मत कर मैं भीतर आया ज्यों ही किबाड़ खोली।
बैठी थी वह ताक में झट से चला दी पहली गोली।
सही निशाना लगा एक में हालत मेरी पतली।
क्या अचूक हथियार था जिसकी गोली बिल्कुल असली।
डबल हो गया हमला अब दो–दो गोली एक संग।
कर न सका मैं कुछ भी सारे शिथिल हो गए अंग।
हाँ कर दी पीहर की मैंने जहर का घूँट पिया था।
तब जाकर देवी ने उस हथियार को बंद किया था।
सावन क्या अब बारहों महीने डर–डर कर जीता हूँ।
जब भी कहतीं पीहर जाना झट हाँ कर देता हूँ।
रोना था हथियार और आँसू थे उसकी गोली।
मेरी बीबी ने खेली थी जिससे खूनी होली।
पता नहीं कितने आँसू थे कहाँ छुपा लेती थीं।
पीहर की ना करो अश्रु की नदी बहा देती थीं।
कैसा था रोना बतलाने से न समझ पाओगे।
पीहर मत जाने देना फिर स्वयं जान जाओगे।

२४ अक्तूबर २००५

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