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अनुभूति में शोभा मिश्रा की रचनाएँ-

 

छंदमुक्त में-
कुछ ऐसा हो जाए
तुम्हारी उम्र का एक मेजपोश
माँ

सखी जब तुम वापस आना
सुन री सखी !

 

 

कुछ ऐसा हो जाए

काश !
कुछ ऐसा हो जाए
सब कुछ भूल जाऊँ
कौन हूँ....
क्या हूँ....
क्या करना है...
किसी को स्कूल भेजना है...
किसी को ऑफिस भेजना है...
कोई मेरा है...
मैं किसी की हूँ... !
काश !
कुछ ऐसा हो जाए...
खो जाऊँ कश्मीर के जंगलों में
बेताब वैली की वादियों में
पहलगाम में 'बशीर' के घर जाऊँ
उसकी पत्नी से खूब बातें करूँ
उसके बच्चों के साथ खेलूँ!
काश!
कुछ ऐसा हो जाए
फिर बचपन में चली जाऊँ
मामाजी के गाँव में रहने लगूँ
सुबह अपनी गाय को चरने भेजूँ
शाम को छत से उसका इंतज़ार करूँ
उसके 'बछड़े' को अपने हाथों से घास खिलाऊँ
'केमुआ' से घोसले से तोता उतारने को कहूँ
तोते की चोंच में चम्मच से दूध पिलाऊँ!
काश!
कुछ ऐसा हो जाए
नन्ही-मुन्नी गुड़िया बन जाऊँ
चाँदनी रात में छत पर....
नानी जी की गोद में सर रखकर सोऊँ
'रामबिरिक्ष' की कहानियाँ सुनूँ
"चंदा मामा आरे आवा... पारे आवा....
नदिया किनारे आवा...
चाँदी की कटोरिया में दूध-भात लेले आवा"
नानीजी की लोरी सुनूँ!
काश!
कुछ ऐसा हो जाए
कि 'बेबी' की झोपडी में...
बेफिक्र होकर उससे मिलने जा सकूँ
उसके चूल्हे पर खाना बना सकूँ
मिटटी के फर्श पर उसके साथ सोकर....
उसकी डायरी पढ़ सकूँ...
काश... काश... काश...

( 'केमुआ' से बचपन की यादें जुड़ी हैं...'.रामबिरिक्ष' बचपन की कहानियाँ... 'बशीर' बहुत प्यारा दोस्त...हर सर्दियों में शाल बेचने आता है... 'बेबी' दिल के बहुत करीब... प्यारी बच्ची.... )

११ नवंबर २०१३

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