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अनुभूति में शोभा मिश्रा की रचनाएँ-

 

छंदमुक्त में-
कुछ ऐसा हो जाए
तुम्हारी उम्र का एक मेजपोश
माँ

सखी जब तुम वापस आना
सुन री सखी !

 

 

सुन री सखी !

सुन री सखी !

आज भी याद है मुझे
स्कूल यूनिफ़ॉर्म की
मटमैली शर्ट
बिना प्रेस की नीली स्कर्ट
सर पर बकरी के सींग की तरह
चोटी में लगा उधरा हुआ लाल रिबन
क्लास की सबसे आगे की सीट पर
विराजती थी तुम पढ़ाकू बनकर
पीछे वाली सीट पर बैठकर
तुम्हारी शर्ट पर मैंने चिड़िया..कौवा
और तुम्हारा ही कार्टून खूब बनाया
लंच टाइम में तुम्हारी शर्ट देखकर
आँखों ही आँखों में इशारा कर
खूब हँसती थी सब सखियाँ
लाख पूछने पर भी कोई मेरा नाम नहीं लेती थी
दबंगयीं से हमारी डरती जो थी
खुर्राट मैडम कक्कड़ से
मुझे डांट पिलाने की
तुम्हारी सारी कोशिशें बेकार जाती
बिना सुबूत छोड़े तुम्हें छेड़ने का
एक भी मौका मैं नहीं छोड़ती
सच .. मुझे कितना मज़ा आता था
तुम्हारा हताश झुँझलाया हुआ चेहरा देखकर
तुम आँखों ही आँखों में मुझसे कह देती थी
"कभी तो तुम्हें ढंग से मज़ा चखाकर ही रहूँगी"
मैं भी शरारती मुस्कान उछालकर
अपनी आँखें गोल-गोल नचाकर
तुम्हारा चलेंज़ स्वीकार कर लेती
हमारे शीतयुद्ध के चर्चे
अक्सर स्कूल में होते रहते
लड़ते -झगड़ते हम जरुर थे
लेकिन मन से जुड़े थे
एक के स्कूल न आने पर
दूसरा कुछ खालीपन जरुर महसूस करता था

फिर वो भी दिन आया
एक नयी दुनिया में हम अलग-अलग रहने लगे
गृहस्त जीवन .. परिवार .. बच्चे
हमारी सोच परिपक्व हो गयी थी
सखियों- सहेलियों से मिलना सपने की बात थी
हाँ .. एक दूसरे को याद बहुत करते थे
बचपन के शरारती झगड़ों को यादकर
खुश हो लेते थे
काश .. कि एक बार मिलते
तो पुराने गिले-शिकवे दूर कर लेते
मैं यही सोचती थी
शायद .. तुम भी

लेकिन हमें तो मिलना ही था
एक दिन एक नयी किताब मिली
चेहरे - चेहरे खेलने वाली
उस किताब में तुम भी नज़र आई
हम दोनों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था
पढाई की बातें .. घर-परिवार की बातें
कुछ दिन होती रही
चेहरे की किताब पर .. लिख-लिखकर
लेकिन हम साथ हों
और शरारत भरे झगड़ें न हों
ये कैसे हो सकता है
इस बार झगडे की वजह बनी
वो भिंडी की सब्जी
जो परोस दी थी तुमने
चेहरे की किताब पर
वैसे ....सच बताएँ
दिखने में टेस्टी तो बहुत लग रही थी
लेकिन राजस्थानी भिंडी की बुराई हमने
तुम्हें छेड़ने के लिए की थी
तुम अपनी पुरानी आदत के अनुसार
छिड़ भी गयीं ...
फिर क्या था ..
सबको दिखाने के लिए हम खुश होकर
लिख -लिखकर भिंडी का स्वाद लेते रहे
और पिछली गली(इन्बोक्स) में
जमकर लड़ते रहे
चटपटी भिंडी जैसे झगड़े के स्वाद को
बीच में ही छोड़कर
अपने "उनके" आने का
बहाना करके
और फिर कभी मुझसे बात न करने की
धमकी देकर चली गयी
और मैं बस मुस्कुरा भर दी
सच कहूँ ..
तुम्हें देखते ही
शरारत सूझ जाती है
फिर एक बार
बहुत दिन से तुमसे मुलाकात नहीं हुई है
वो झगड़े वाली मुलाकात
कब होगी .. बताना तो ...

११ नवंबर २०१३

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