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अनुभूति में शुभम की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
अस्तित्व
कलम
पता नहीं क्यों 

 

अस्तित्व

एक दिन मैने एक पानी का बुलबुला देखा
उस बुलबुले से बहुत कुछ सीखा
सीखा मैने जीवन का संघर्ष
दिल पे हुआ धड़कनों का स्पर्श
वो बुलबुला बिल्कुल मेरे जैसा था, तन्हा और खामोश!
वो बुलबुला पानी में पड़ा जाने क्या सोच रहा था
मुझे लगा शायद वो अपना अस्तित्व खोज रहा था
स्थिर पानी, बुलबुला खामोश!
मानों उसकी खामोशी को शब्दों की तलाश थी
पानी में रहकर भी जाने क्या प्यास थी
यकायक बुलबुले ने चुप्पी तोड़ी उसमें उबाल आया
ये बुलबुले को क्या हुआ  मन में मेरे सवाल आया
जीवन भर जो न कह सका 
आखिरी साँस में कह गया
मरते-मरते स्थिर पानी में हलचल सी कर गया
बार-बार बनना, बार-बार बिगड़ना   
यही बुलबुले का व्यक्तित्व है
पानी में बना, पानी में रम गया   
नहीं उसका कोई अस्तित्व है
मुझे लगा बुलबुले से अच्छा तो मैं हूँ 
मेरा कोई अस्तित्व तो है
फिर सोचा शायद बुलबुला ही मुझसे अच्छा है
बनना-बिगड़ना, बिगड़के बनना
उसके जीवन में कुछ चल तो रहा है।

१ फरवरी २००३

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