अभिव्यक्ति
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१. ३. २००७

ऋतु फगुनाई है

पद-रज हुई
गुलाल
लगा फिर ऋतु फगुनाई है।

मादल की
थापें हों या-हों-
वंशी की तानें,
ऐसे में
क्या होगा यह तो-
ईश्वर ही जाने,

रक्तिम हुए
कपोल
झील ऐसे शरमाई है।

गंध-पवन के
बेलगाम-
शक्तिशाली झोंके,
कौन भला
इनको जो बढ़कर-
हाथों से रोके,

खिले आग के
फूल
फूँकती स्वर शहनाई है।

—डॉ. इसाक 'अश्क'

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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