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आप का कैसा मुकद्दर
गम को पीकर
जब से हमने
मौलवी पंडित परेशा

 

 

आप का कैसा मुकद्दर

आप का कैसा मुकद्दर हो गया
सिर ढका तो पाँव बाहर हो गया

दर्द सारे ग़म के दरिया में बहे
जिन्‍दगी का दिन कलेण्‍डर हो गया

हादसों के बीच जीना किस तरह से
खून का कतरा समन्‍दर हो गया

भीड़ में खोया हुआ है आदमी
भीड़ से निकला सिकन्‍दर हो गया

दौर है बदलाव का ऐसा 'उपेन्‍द्र'
कल का काँटा आज खंजर हो गया

११ जुलाई २०११

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