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आप का कैसा मुकद्दर
गम को पीकर
जब से हमने
मौलवी पंडित परेशा
 

 

गम को पीकर

गम को पीकर लोग अब जीने लगे हैं
खुद ब खुद अपना कफ़न सीने लगे हैं

एक खामोशी अजब छायी हुई है
खुद में खोने की सुरा पीने लगे हैं

इंकलाबे जोश के मंजर कहाँ अब
जुल्‍म के सैलाब में जीने लगे हैं

सरे म‍हफि़ल बहकते भूखे कदम जब
बोरियों पर कैसे तसमीने लगे हैं

और क्‍या ख्‍़वारी रही बाकी 'उपेन्‍दर'
जिसकी खातिर जुबाँ को सीने लगे हैं

११ जुलाई २०११

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