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आप का कैसा मुकद्दर
गम को पीकर
जब से हमने
मौलवी पंडित परेशा
 

 

जब से हमने

जब से हमने स्‍वयं की पहचान को खोया
तब से हमने अधिक गहरे दर्द को बोया

यों बहुत होती रहीं बदलाव की बातें
आ गया ठहराव तो हर आदमी रोया

दूर तक फैली रही भटकाव की छाया
जब चले हँसने तो आँसू ने पलक धोया

दूसरों के गम हमीं कब तक भला रोते
शुष्‍क आँसू रह गया है एक अनबोया

आह भरते हैं मगर आहट नहीं होती
मन से मन की दूरियों में आदमी खोया

११ जुलाई २०११

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