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अनुभूति में बद्रीनारायण की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
कौन रोक सकता है
दिल्ली जाना है
पहाड़ की चढ़ाई
माँ का गीत
राष्ट्रीय कवि

 

पहाड़ की चढ़ाई

उस दिन मुझे पूरा विंध्य
नमक का पहाड़ लग रहा था,
जैसे ही मैंने चढ़ना शुरू किया
शुरू हो गया मेरे शरीर का गलना

पहली चढ़ाई में पाँव गला,
दूसरी चढ़ाई में घुटना
तीसरी चढ़ाई में गलने लगा
कंधा और केहुना

जिसने जितनी तेजी से किया होगा जीवन में समझौता
वह उतना तेजी से गल जायेगा इस गिरि पर्वत पर
उसी वक्त मेरे कानों में गूँजने लगा
एक जोगी का निर्गुण गीत

हे प्रभु मुझे अगले जन्म में
प्रतिरोध की क्षमता अपार देना
स्वीकार करते करते पूरा जीवन बीता
अगर मुझमें थोड़ा भी नकार होता
तो आज आँखें जवाब नहीं देतीं
विवेक नहीं छोड़ता इस कदर साथ
देखिए ना स्वर्णिम होता जा रहा है
मेरे संग चलने वाले कुत्ते का शरीर
अगर किसी अनजान पुण्य के कारण
मैं गलने से बच गया
तो मुझे झूठ के विरुद्ध लड़ने का देना आत्म विश्वास
देना मिथकों को फाड़ते चलने वाला नखदन्त
इस चढ़ाई में तो कोई नया अंग नहीं गला,
पर हो सकता है
अगली चढ़ाई में शायद
गल जाये अँगुली कानी।
 

२९ जुलाई २०१३

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