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लगता है कि
वजूद नहीं है मेरा कोइ
यहाँ तुम्हारे लिए
तुम चंचल हो,
नर्म दिल और भोली सी
तुम्हारे ही अंदर
पड़ी है अकाल की वो दरारें
जो सदियों से सूखे को संजोकर
बैठी है तन्हा
तुम्हें क्या पता कि
वो इस मिट्टी से
अलग-थलग करती है हमें
प्रति पल !
अब भी वक्त है,
ठहरो, सोचो और
खुद को ही सँभालो
आनेवाली मुश्किलों से
बचा लो
जो दस्तक दे रही है
मेरे-तुम्हारे
मन के द्वार पर...!!!

२९ नवंबर २०१०

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