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                   मैं अक्सर अपनी 
					चाबियाँ खो देता हूँ 
					 
					छाता मैं कहीं छोड़ आता हूँ 
					और तर-बतर होकर घर लौटता हूँ। 
					अपना चश्मा तो मैं कई बार खो चुका हूँ। 
					पता नहीं किसके हाथ लगी होंगी वे चीज़ें 
					किसी न किसी को कभी न कभी तो मिलती ही होंगी 
					वो तमाम चीज़ें जिन्हें हम कहीं न कहीं भूल आए। 
					 
					छूटी हुई हर एक चीज़  
					तो किसी के काम नहीं आती कभी भी 
					लेकिन कोई न कोई चीज़ तो किसी न किसी के 
					कभी न कभी काम आती ही होगी 
					जो उसका उपयोग करता होगा 
					जिसके हाथ लगी होंगी मेरी छूटी हुई चीज़ें 
					वह मुझे नहीं जानता होगा 
					हर बार मेरा छाता लगाते हुए 
					वह उस आदमी के बारे में सोचते हुए 
					मन ही मन शुक्रिया अदा करता होगा  
					जिसे वह नहीं जानता। 
					 
					इस तरह  
					एक अनाम अपरिचित की तरह उसकी स्मृति में 
					कहीं न कहीं मैं रह रहा हूँ जाने कितने दिनों से, 
					जो मुझे नहीं जानता 
					जिसे मैं नहीं जानता। 
					पता नहीं मैं कहाँ, कहाँ-कहाँ रह रहा हूँ 
					मैं एक अनुपस्थित-उपस्थित ! 
					 
					एक दिन रास्ते में मुझे एक सिक्का पड़ा मिला 
					मैंने उसे उठाया  
					और आसपास देखकर चुपचाप जेब में रख लिया 
					मन नहीं माना,  
					लगा अगर किसी ज़रूरतमंद का रहा होगा 
					तो मन ही मन वह बहुत कुढत़ा होगा 
					कुछ देर जेब में पड़े सिक्के को  
					उँगलियों के बीच घुमाता रहा 
					फिर जेब से निकाल कर  
					एक भिखारी के कासे में डाल दिया 
					भिखारी ने मुझे दुआएँ दी। 
					 
					उससे तो नहीं कह सका मैं 
					कि सिक्का मेरा नहीं है 
					लेकिन मन ही मन मैंने कहा 
					कि ओ भिखारी की दुआओं 
					जाओ उस शख़्स के पास चली जाओ 
					जिसका यह सिक्का है। 
					 ४ मार्च २०१२  |