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अनुभूति में सविता मिश्रा की
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उन बच्चों के लिये
काश! ऐसा होता
घसियारिनें
बित्ता भर रोशनी
समुद्र के तट पर

छंदमुक्त में-
अप्पू
थोड़ी-सी जगह
बेखबर लड़की
याद
रह-रह कर

 

काश! ऐसा होता

उसके सो जाने पर
उसके पड़ोस में बैठकर
लिखी थी उसने प्रेम-कविता
सजाया था सुन्दर-सटीक उपमाओं से
पहनाया था खूबसूरत लिबास

एक ही छत के नीचे
एक ही कमरे में
जरूरत नहीं पड़नी चाहिए
प्रेम-कविता लिखने की

काश!
हौले से घुमाई होतीं उँगलियाँ बालों में
जो पक रहे हैं उसके ही सामने
गेहूँ की पकी बालियों की तरह

काश!
नहीं लिखी होती उसने प्रेम-कविता
सिर्फ हौले से
ले लिया होता उसका हाथ
अपनी हथेलियों में

भले ही नहीं फूटता कोई शब्द
लेकिन हाथ और हथेलियों के बीच
पसीजने जरूर लगता प्रेम
और इसके सामने हार जाती
शब्दों का खूबसूरत लिबास पहने
उसकी एरिस्ट्रोक्रेट कविता।

१६ फरवरी २०१५

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