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अनुभूति में स्वदेश की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-

मंजिलें
हमसफर
अमर हो जाए

 

 

मंजिलें 

अपने से अपने को
अलग कर
टटोलता हूँ मन को
झकझोर कर
तो कितना अजनबी लगता हूँ खुद को

तब वापस खोल में अपने को
ढँक कर
प्रश्न करता हूँ स्वयं से
डर कर
क्या दूर जा रहा हूँ खुद से ही
अजीब लगता है पूछते हुये
मुझको मुझसे
यह कैसा है सफर
और कहाँ है मंजिल
क्यों लगता है बेगाना
अपना ही दिल

भाई बंधु
रिश्ते और नाते
कौन है अपना
और कौन पराया 
ढूँढने से क्यों नहीं मिलता अपना ही साया

जब सब हों
पास पास
तो कितना लगता है डरावना
अकेलेपन का अहसास

खुद को खुद से
चुराकर
कहाँ ले जाऊँ  
घबराकर
मिलेगी मंजिल क्या मरकर

 

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