रिश्तों से
रिश्तों से अब डर लगता है।
टूटे पुल-सा घर लगता है।
चेहरों पे शातिर मुस्कानें
हाथों में खंजर लगता है।
संग हवा के उड़ने वाला
मेरा टूटा पर लगता है।
हथियारों की इस नगरी में
जिस्मि लहू से तर लगता है।
जीवन के झोंकों पर तेरा
साथ हमें पल भर लगता है।
सारा जग सिमटा घर में तो
घर जग के बाहर लगता है।
१५ मार्च २०१० |