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अब शहर की हर फिजा

अब शहर की हर फिजा तब्दील-सी लगने लगी
हर नज़र इक दर्द की तफ़्सील-सी लगने लगी

मैं गया था छोड़कर इक चुलबुलाती-सी नदी
वो नदी ठहरी हुई अब झील-सी लगने लगी

दो क़दम भी था न तेरे घर से मेरा घर मगर
अब वही दूरी हज़ारों मील-सी लगने लगी

कब तलक ढोते रहेंगे उम्र की भारी सलीब
जिस्म ईसा और साँसें कील-सी लगने लगी

भर गए जब रात के गहरे समन्दर ज़हन में
याद हमको आपकी क़न्दील-सी लगने लगी

इन पिघलते फ़ासलों में आपकी ये ख़ामशी
बे-ज़बाँ जज़्बात की तफ़्सील-सी लगने लगी

१७ सितंबर २०१२

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