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अनुभूति में अभिनव शुक्ला की रचनाएँ -
गीतों में-
अंतिम मधुशाला (हरिवंशराय बच्चन को श्रद्धांजलि)

अपने दिल के हर आँसू को
आवाज़ें

नहीं बयान कर सके
बांसुरी
वक्त तो उड़ गया
शान ए अवध
है बड़ी ऊँची इमारत

ज़िन्दगी है यही

हास्य-व्यंग्य में -
इंटरव्यू
काम कैसे आएगी
गांधी खो गया है
जेब में कुछ नहीं है
मुट्टम मंत्र
विडंबना

संकलन में
ज्योति पर्व -वो काम दिवाली कर जाए
                खुशियों से भरपूर दिवाली
गाँव में अलाव - कैसी सर्दी
प्रेमगीत - भावों के धागों को
गुच्छे भर अमलतास
नया साल-अभिनव नववर्ष हो
ममतामयी-मेरा आदर्श

 

शान-ए-अवध

एक अरसा हुआ है उस चमन से गुज़रे हुए,
रात अरसे से हर एक शाम के बाद आती है,
जिस जगह हमने गुज़ारा था वो बचपन अपना,
आज भी हमको उसी शहर की याद आती है,

वो हज़रतगंज कि जिसकी हसीन सड़कों पर,
फिरते थे मारे मारे कभी हम दिन भर,
अमीनाबाद वो कि जिसका जिक्र छिड़ते ही,
झूम उठता था हमारे घरों का हर पत्थर,

वो गोमती नगर वो अलीगंज नगर इन्दिरा का,
वो सड़के आर डी एस ओ की जहाँ था मैं खेला,
वो बासमण्डी, वो राजाजीपुरम, वो खदरा,
और नक्कखास में इतवार का बड़ा मेला,

वो चारबाग वहाँ जिसका नाम सुनते ही,
किसी के आने की आहट सुनाई देती थी,
वहीं पर पास ही तो थी बड़ी ऊँची बिल्डिंग,
जहाँ से शहर की रौनक दिखाई देती थी,

वो डालीगंज के आगे बनी पुरानी सड़क,
जहाँ की रातें सितारों में डूब जाती थीं,
वो भूतनाथ का बाज़ार जहाँ सुनते हैं,
नई शामें थी नई आग खूब आती थी,

वो श्यामलाल लेन जिस पर एक पुराना घर,
अचार वाली गली की महक का वो मंज़र,
वो बर्मा स्टाप कि जिससे ज़रा सा आगे था,
किसी नादान महल की मज़ार का पत्थर,

ईमामबाड़े से लगती अज़ीम वो मस्जिद,
जहाँ अल्लाह से हम सीधे बात करते थे,
वो घड़ी वाली मीनार, रूमी दरवाज़ा,
बैठकर जिस पे वहाँ दिन को रात करते थे,

वो रेज़ीडेसी कि जिसकी बड़ी दीवारों पर,
निशान आज भी कायम है उस जवानी के,
गदर का नाम लेकर जो उठी थी मेरठ से,
ये हैं पन्ने उसी भूली हुई कहानी के,

वो के डी सिंह जी के नाम का बड़ा मैदान,
जहाँ पर बड़े लोग खेलने को जाते थे,
उसी के पीछे ही तो बना था हनुमान सेतु,
जहाँ से धरती और आकाश नज़र आते थे,

वो घाट गोमती का जिसकी गोद में आकर,
किसी के डूबते दिन को सलाम करते थे,
वो नदी जो सदा खामोश बहती रहती थी,
सब अपना अपना वहाँ इंतज़ाम करते थे,

चिकन का कुर्ता हो या हो कबाब टुण्डे का,
प्रकाश की कुल्फी बाजपेयी की पूरी,
हम अपनी सायकिल पर पूरी नाप लेते थे,
शहर के इस तरफ़ से उस तरफ़ की दूरी,

हया जो लड़कियों में आज तलक कायम है,
नशा जो आज भी सड़कों पे बहता रहता है,
वो खुशबुएँ अलग अलग तरह की उड़ती है,
वो लहजा आम को जो ख़ास कहता रहता है,

शहर के एक तरफ़ देखो तो यह लगता है,
सियासतों ने अपना हाथ बढ़ा रखा है,
नज़र को दूजी ओर करते हैं तो पाते हैं,
प्यार ने प्यार को परवान चढ़ा रखा है,

वो नज़ाकत वो नफासत वो तकल्लुफ़ यारो,
जो किताबों में कही तुमने भी पढ़ा होगा,
वहाँ की गलियों में सब आज भी मुहाफिज़ है,
वक्त भी 'पहले आप' कहके ही बढ़ा होगा,

कोई कविता कोई ग़ज़ल या कोई गीत कभी,
बयान उस शहर का हर रंग नहीं कर सकता,
वहाँ की बात ही कुछ और है चलो छोड़ो,
दिलों से दिल के लिए जंग नहीं कर सकता,

वो लखनऊ है जहाँ अब भी चाँद और सूरज,
हर एक राह को झुक कर सलाम करते हैं,
वहाँ के ढंग और ज़बान सब निराले हैं,
हम अपना किस्सा यही पर तमाम करते हैं,

मगर इतनी सी बात हमको और बतानी है,
कभी सुबह तो कभी शाम के बाद आती है,
जिस जगह हमने गुज़ारा था वो बचपन अपना,
आज भी हमको उसी शहर की याद आती है।

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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