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  किससे शासित जीवन?

जीवन प्रदेश पर, कौन कर सकता शासन,
कितने समय के लिए, सारे ही अस्थायी।

प्रारंभिक काल में माता पिता भाई बहिन,
अथवा निकट के परिजन,
जीवन के राज्य पर, सियासत कर लेते हैं।

शक्ति, तनिक आते ही, राजा बन बैठता अहंकारी तन
इंद्रियों की सकल प्रजा, अंग के सारे सभासद,
भावना या मन के विरोध के उपरांत भी,
सिर झुकाकर मानते सम्राट का कथन।

तनिक उम्र के ढलते,
छीनती सारी सियासत, वही जनता,
उसी जनता की रियासत।
जीवन के सूबे पर, जिसका था एक छत्र शासन,
शनैः शनैः होने लगता, कृशकाय निरुपाय।
मन अब हावी होता,

बदन असहयोग करता, किंतु चिंता नहीं किंचित,
आत्मा परमात्मा के रास्ते का यात्री बन
जीवन के राज्य पर, मन का, केवल मन का,
अब चलता है, शासन।

समय फिर करवट बदलता,
लाता अभूतपूर्व क्षण
तन होता सत्ताच्युत, मन भी आसन विहीन।
जीवन अस्तित्व रहित शून्य में चला जाता,
तन मन जीवन सब का, हो जाता खात्मा,
सार तत्व शेष, मात्र रह जाता आत्मा।

१५ जून २००९

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