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जैसी करनी वैसी भरनी
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गीत गा
नदी
यात्रा से मुक्ति कहाँ
संप्रेषण
समय और मैं

 

नदी

उसे मात्र नदी न कहो,
वह अलौकिक ही नहीं संपूर्ण साध्वी भी है,
पारदर्शी, अतल गहराई युक्त, उदार ह्रदय वाली।
निरंतर प्रवाहमान, उमंग में छलछलाती,
करूणामयी तुरूही, सांस्कृतिक दुंदुभि।
गजवदनी प्राणियों के लिए ही नहीं,
चीटियों, भ्रमरों के लिए भी,
आशीर्वाद का स्नेह छलकाती बढ़ती ही जाती वह।
आशा की किरण, और विश्वास की यह देवी
किनारे पर खड़े शिशु वृक्षों को,
जलपान, पयपान कराती चलती।
भविष्य के छायादार, फलदार वृक्ष यही होंगे,
पूर्णतया आशान्वित रहती
अपने साम्राज्य की सतर्क महारानी,
सबके लिए सिंचन कर, जीवन में हर्ष लाती है।
छाया के तले हरी दूर्वा पर झपकी लें,
पदन्यासी विश्राम करें।
तनिक भेदभाव नहीं, धर्म का या पंथ का,
स्नान करें, चाहें स्तुतिगान करें।
स्थायी आमंत्रण, निर्मल स्वच्छ होने का,
प्रत्येक माँ बच्चे का ज्यों व्यक्तित्व सँवारती,
भीतर और बाहर से, निष्कलुप हो जाने का
आज, इसी क्षण उसी सूत्र को बताएगी,
भले वह कल-कल कहे।

२५ फ़रवरी २००८

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