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अनुभूति में कमलेश भट्ट कमल की रचनाएँ—

नई रचनाओं में—
उम्र आधी हो चली है
ऐसा लगता है

क्या हुआ
मुकद्दर उसके जैसा

अंजुमन में—
झुलसता देखकर
न इसकी थाह है
नदी
नसीबों पर नहीं चलते
ना उम्मीदी में
पेड़ कटे तो
वहाँ पर
समंदर
हज़ारों बार गिरना है
हमारे ख्वाब की दुनिया

दोहों में—
छे दोहे

हाइकु में—
आठ हाइकु
होली हाइकु

 

मुकद्दर उसके जैसा

मुकद्दर उसके जैसा दूसरों का हो नहीं सकता
समंदर की तरह कोई भी प्यासा हो नहीं सकता

करोड़ों जुगनुओं से रोशनी हो जाएगी लेकिन
बिना सूरज उगे जग में सवेरा हो नहीं सकता

पिघलता है अगर पर्वत तो दरिया रूप लेता है
मगर जमने से भी पर्वत-सा दरिया हो नहीं सकता

हमें दीवार-छत का एक साया भी ज़रूरी है
हवाओं की तरह अपना गुज़ारा हो नहीं सकता

नदी कोई भी हो, उसका कहीं पर तट तो होता है
मगर तट आँसुओं वाली नदी का हो नहीं सकता

कहीं बारूद मिलती है, कहीं पत्थर भी मिलते हैं
कि जीवन-पथ तो फूलों का गलीचा हो नहीं सकता

कोई अहसास कमतर तो नहीं लगता है रिश्तों का
कोई अहसास, पर माँ की दुआ-सा हो नहीं सकता!

१० अगस्त २००९

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