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राख का ढेर

 

राख का ढेर

मन की दबी चिनगारियां
क्यों अक्सर सुलगने लगती हैं
यह जानते हुए भी
कि ये किसी को नहीं सुलगा सकतीं
खुद ही खुद जलना है इन्हें
निर्भाव मन की राख में . . .

ये क्यों नहीं समझ पातीं
कि ये दबी रहें तो अच्छा है
सुलगेंगी तो अवसाद बढ़ेगा भावों का
इनमें नहीं उठ सकेंगी लपटें
राख में दबे रहते
और न ही किसी को जला पाएँगी ये . . .
सिवाय अपने अरमानों और सिवाय खुद के
होश आने पर दीखेगा
फिर एक और उदासी भरा
राख का ढेर
जिस पर लिखा होगा
हां‚ यहां पहले कभी आग थी।

१६ अक्तूबर २००४
 

 

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