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गाँव और शहर: पाँच चित्र

वो कुलांचे भरता एक खरगोश
दूब से हरे
दूर तक फैले एक जंगल में
उसे निगल कर
अभी अभी
सूखे दरख़्त से
लिपटा है
एक अजगर.

जलती हुई
ढिबरी के आस पास
घूमती है अँधेरे की आत्मा
लक दक रोशनी
यहाँ खाती जाती है
अपनी परछाई भी.

सुवर्ण रेखा के मंद प्रवाह में
इस शाम सराए गए हैं दिए
लेकर जायेंगे ये
रोशनी उनके पुरखों तक
पशुओं के रक्त सने चमड़े को
धोया गया है अभी अभी
गंगा किनारे एक टेनरी में
आने वाली पुश्तों के
हिस्से की रोशनी में
एक शहर मनाता है अपना ज्योति पर्व.

माघ की एक कठिन रात में
खाँसता है बूढ़ा खेत
तारे टिमटिम झपकाते हैं पलक
चाँद बाँटता है अमरत्व
मुंबई की धुंध भरी चादर में
हाँफता है बचपन
एक साँस के लिए
घर घर दवाई की दूकान
२४ तास खुली है.

साँझ के एकांत में
किनारे का कदम्ब
चुपचाप समर्पित कर देता है
अपनी पत्तियाँ
शांत बहते समय को
अपने अपने ईश्वर
विसर्जित करने को
सर पर आसमान उठाये है
शहरों की अंतरात्मा.

१ जून २०१७

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